कालिदास और विक्रमादित्य का काल - निर्णय | Kalidas Aur Wikramaditya Ka Kal - Nirnay

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Kalidas Aur Wikramaditya Ka Kal - Nirnay by काशीनाथ कृष्ण लेले - Kashinath Krishn Lele

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कालिदास ओर विक्रमादित्य का काल-निर्णय । ११ 1 चसलेख नहीं हैं । कालिदास के ল্য মর उल्लेख है कि “ग्रहेलतः .. पशग्ममिरुश्संस्थितेः” (रधुवंश सगं ३ इठोक १३ ) यह उल्लेख ऐसा नहीं है जो उस ज़माने में किया जा सके जब जातक-शास्त्र में राशियों का आराम तौर से उपयोग न होने छगा है, अतएवं शक-पूर्वकास्ट में कालिदास का अ्रस्तित्थ असम्भव # । ऊपर कहा गया है कि शकारम्भ-काम्ट तक जितने ग्रन्थ छिखे गये उनमें राशियों का उल्लेख नहीं पाया जाता। इम कथन पर दो एक आहेप किये जा सकते हैं; हुस स्थान पर उनका भी निष- टारा कर देंना आवश्यक है ; स्वीय टकमास्य तिन्टक सपने गीतारहस्य में ( प्रू० १६५ । और स्वर्गीय शहर बात कृष्ण दीक्षित अपने ( मराठी ) “भारतीय ज्योतिःशाख का हसि- हास (प्रू० १०२ ) में लिखते हैं कि बोधायन सूत्र में राशियें का उल्लेख मौजूद है । गीता-रहस्य में इस विषय पर बोधायन का वचन, जो काटरमाधव स उत किया गया है, यह है--्मीनमेपयेोर्मेयदषभयोर्वां আলন্ল: | इस वचन में “मीन मेष वश्वन्त' श्रथवा “मेष बूषम वसन्त का विकल्प दिखाया गया है । इसी से यह सिद्ध हों सकता है. कि यह वचन उतना प्राचीन नहों है जितना माना जाता है| मीन मेष वसन्त की परिभाषा प्रधानतः बराहमिहिर से कायम हुई अर उसन प्रत्यक्ष परीक्षणा द्वारा उसके দিন किया हैं । वराहमिद्दिर यह ब्तत्टा रहा है कि उससे पहले अ्रयनप्रद्धत्त किस नक्षत्र पर सानी जाती थी। पय उससे पहले मीन मेष वसन्तः की परिभाषा का कायम होना असम्भव हैं श्रार वराह्मिष्टिर से पहले जिस কাল में 'मेष वृधभ बसनन्‍्स' थया मीन सेप वसन्‍ल' का सैशय स्पष्ट दिग्वाई पड़ने त्ूगा | ज्ञान पड़ता हैं कि बचा- यन का वचन भी उसी कान में उपस्थित हुआ | श्रार इसी लिप्‌ यह कहा जः मक्ना ह कि वराष्मिहिर से बहुत हागा तोदो चार सौ उं पटले वह उपस्थिन हा सकता है; हससे अधिक प्राचीन होना सम्भव नहीं। इस नरह इस वचन से भी यह अच्छी तरह सिद्ध नहीं हो सकता कि शक-पूर्वकाल में राशियों का प्रचार दुश्चा । घालमीकि-रामायण में सी गाशियां का उठ्छग्य हैं. पर इस स्यात पर उसका विवेचन करना आवश्यक नहीं; क्योंकि कितने ही लोगों के मत के अनुसार वह রি प्रसिप्त : और इस उल्छ्तेस् के कारण कितने ही रामायण के रचना-कार काही इस श्रोर खींचते हैं । (२) जिस तरह यूनानियों के सहवास से राशियों का प्रचार हमारे देश में हुआ, ठीक इसी तरह अन्य भी कितनी हम श्रातो श्रौर किलने ही अयोतिष-विपशरक यूनानी शब्दों का प्रचार हुआ । वराइमिह्टिर के मन्थोमें यूनानी श्ट बहुतायत से पाये जाते हैं और वह पन पन्य में बढ़े आदर के साथ यूनानियों का उछेख करता हैं । इससे बह विदित द्वोता है. कि वराइमिहिर के समय के लगभग ही यूनानी शब्दों का अधिकता से प्रचार दुआ । यह सम्भव नहीं कि जनता में इस विदेशी भाषा के शब्दों का प्रचार अच्छी नरह हू जाने से पहले ही कान्य मं उनका समावेश किया गया है। और कालिदास अपने काब्य में जा मिनश्रादि:ः यूनानी शब्दों का प्रयोग करता हैं। इससे विदित होता हैं कि कालिदास का काल वराहमिहिर के कार के आस- पास है होना चाहिए । यदि यह बात कोई निर्विवाद सिद्ध कर दे कि शक के आरम्भ से पहले राशियों का ओर यूनानी सेज्ञाओं का प्रचार हो चुका था तो शायद उक्त भ्रमाण नित्त्ट पड़ जायें । इसलिए आगे इससे भी श्रधिक प्रतर प्रमाण दिये जाते दहै । 1३) ज्योतिष-शास्त्र के इतिद्दास से ज्ञात दोता हैं कि ईसा की पाचियों या उठी शतादी में भारत न इस शाख्र में ब्रहुत उज्नति की । इस काट में रायम्‌ और वराह- মিলি जैसे बड़ बड़े ज्योतिष-शाख्तर-वेत्ताओं न भ्रपने अपने सिद्धान्त-ग्रन्थों का निर्माण किया | इसी से इस काल को निद्धान्त-कान्ट की संज्ञा भाप्त हुईं और इस कार में चारों ओर ज्योतिप-णास्त्र पर अधिक चर्चा आरम्भ हुई। कालि- दास के काब्य में ज्यातिष-वचिप्यक उल्लेख बहुतायत से पाये जाते हैं । इससे भी यह नहीं पाया जाता कि कालिदास इस सिद्धान्त-काल मे पटले मौजूद धा। कालिदास चः रघुरदेश कान्य मे अगस्त्योदय के विषय पर यह उल्लेख किय! गया ह#ैं-- 'प्रससादादयादुम्भ: कुम्भयेने- मंहे।जसः !*' इससे श्रीयुत रामचन्द्र विनायक पटवर्धन जटाहे सन्‌ १३1७ के चित्रमयज्ञगत ( मराठी ) में कालि- ४० 'तिथों च जामित्रमुणान्वितायाम्‌ ।?' कुमारसम्भव, नगं ७ शकं \।




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