श्री आचाराङ्ग सूत्रम | Sri Aacharangad Sutram

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Sri Aacharangad Sutram  by आत्माराम जी महाराज - Aatnaram Ji Maharajशिवमुनि जी महाराज - Shivmuni Ji Maharaj

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शिवमुनि जी महाराज - Shivmuni Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आगम पठने मे चित्त स्थैर्य का अपना महत्व है ओर चित्त स्थैर्य के लिए योग, आसन, प्राणायाम एव ध्यान का सविधि एव व्यवस्थित अभ्यास आवश्यक है । यह अभ्यास भी गुरु आज्ञा मे किसी योग्य मार्गदर्शक के अन्तर्गत ही करना चाहिए। आसन प्राणायाम ओर ध्यान का प्रमुख सहयोगी तत्व है । शरीर की शुद्धि कौ षटुक्रियाए हैँ । इन क्रिया का विधिपूर्वकं अभ्यास करने से साधना के बाधक तत्त्व, शारीरिक व्याधिया, दुर्बलता, शारीरिक अस्थिरता, शरीर मे व्याप्त उत्तेजना इत्यादि लक्षण समाप्त होकर आसन स्थैर्य, शारीरिक ओर मानसिक समाधि एव अन्तर मे शान्ति ओर सात्विकता का आविर्भाव होता है तथा इस पात्रता के आधार पर प्राणायाम ओर ध्यान को साधना को गति मिलती है। अपने सद्‌ गुरु देवो की भक्ति, उनका ध्यान एव प्रत्यक्ष सेवा यह ज्ञान उपार्जन का प्रत्यक्ष एव महत्त्वपूर्णं उपाय है । शिष्य कौ भक्ति ही उसका सबसे बडा कवच है । अनेक साधक स्वाध्याय का अर्थ केवल विद्रता कर लेते है । लेकिन स्वाध्याय का अन्तर्हृदय है, आत्म समाधि ओर इस आत्म- समाधि के लिए सात्विक भोजन का होना भी एक प्रमुख कारण है । प्रतिदिन मगलमैत्री का अभ्यास ओर आगम पठन केवल इस दृष्टि से किया जाए कि इससे मुह कुछ मिले, मेरा विकास हो, मैं आगे बढ़, तब तो वह स्व-केन्द्रित साधना हो जाएगी, जिसका परिणाम अहकार एवं अशाति होगा। ज्ञान-साधना का प्रमुख आधार हो कि मेरे द्वारा इस विश्व मे शाति कैसे फैले, मैं सभी के आनन्द एवं मगल का कारण कैसे बनू , मैं ऐसा क्या करू कि जिससे सबका भला हो, सबकी मुक्ति हो। यह मगल भावना जब हमारे आगम ज्ञान और अध्ययन का आधार बनेगी तब ज्ञान अहम्‌ को नहीं प्रेम को बढ़ाएगा। तब ज्ञान का परिणाम विश्व प्रेम और वैराग्य होगा, अहकार ओर अशाति नहीं । - शिरीष मुनि प)




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