समाधिशतकम | Samadhishatakam
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
283
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(९३)
জুতা অল दिद्वरतरतसः नान्यतुप्रारपदस्् ।
यदै सीतस्ततेा नान्ददुभयरश्पनमात्सयः ॥ २६ ॥
परान्सज्ञान प्राप्त वरना श्रस्ममे कठिन है जिम से मूढ
कषप विचारा इन्द्रं के श्मानन्द् सें विश्वाप करता है और
1त्सज्ञान दा विचार थी नहीं करता | उसको यह हितशिष्षा
कि भो पन्ये | जहां तुस विश्ठाम रख कर बेढे हो वह स्थान
म्हारे लिये ययकारी हे रौर जहां तुम दो ऊभी भय दोखता
वह आस्सज्ञात ठुल्हारा निभ्ष रथान है। झतः शाप लोग
न्द्रियों के सुख के लिये जो श्रम उठाते हो झोर कभे उपाधि से
प्त हए पुद् घन सान इत्यादि से नादत्त दुःख पाते हो उच्त को
गड कर श्रात्महित चिन्तन करो जिस से तुम्हारा भय सवंधा
र हो जावे।
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सवं न्द यानि रूंयस्य रितसितेनान्तरात्सन्म ।
यत्क्व्णं पश्थले লাকি জব্বার परसात्सलः ॥ ३० ॥
১
खात्सध्यान करने वाले को इन्द्रियां का जार बहुत होने से
वेच्न होता है इख लिये यह हितशिक्षा है कि पांच इन्द्रियं
र्यात् कान, राख, नाक, जीभ शमौ शरीर कौ पथस स्थिर
हरो \ रक क्षण सी स्थिर होकर तुस श्ात्सा में प्मनुभव करोगे
रो तुरन्त खात्सा के लिसल श्रं का अनुभव होगा वह हो
परसात्सा का तत्त्व है अरपत् सपप स्वयदही परसात्सा कै निर्मल
ध्वरूप का पाने क्य यास्यता वतलाते दहो ॥ ३० ॥
यः परात्पा स एवारं येऽहं र परसस्तत. ।
अहमेव सयोपास्येः सानन््यः कश्चिदिति स्थिति: ॥३९ ॥
समुद्र को तरंग के बीच ऊब दाव हिलती है तव द्वृश्य
( दिखाव ) विधिच्र होता है, जब स्थिर होतो है तब उसका
सलसस््वरूप दीखता है। उसी तरत्ध से शात्मा दचन्ठियां से घचज्नल
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