शुक्ल जैन रामायण [पूर्वाद्ध] | Sukla Jain Ramayan [Purvaddha]

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१३ व्यन्तरी शीघ्र ही वहां से चले। इतने में हो उस पुरुष की वह श्रसली स्त्री जा दूर ही से इस सारी बात को देख रही थी, हांपते कांपते उनके पास आई ओर वोली-अजी मुझ अनाथिनी को इस निर्जन वन में आप कहां छोड़ रहे हो। आपके साथ जो स्त्री लग गई है वह आपकी स्त्री नहीं दै। अब तों व्यन्तरी ने अपने बचसों को सत्य सिद्ध करने के लिए समय विचारा श्चीर तत्काल ही उस पुरुष के प्रति बोली-मेने जो कहा था बद्दी हुआ ना। अब भी यहां से जल्दी निकल भागों नहीं तो जीना भी किन हो जायगा । इस श्राश्चयं वाली वात को देखकर बह बड़ा भयभीत हो गया एवं अ्समजस में पढ़ गया। बह वहां में चलने की तैयारी ही में था कि इतने में उमकी असली स्त्री ने उस व्यन्तरी का हाथ पकड़ लिया, तब तो परस्पर बाद विवाद करने लग पड़डी कि में हूँ मुख्य स्त्री और दूसरी कद्दती है कि में हूँ मुख्य रत्री । ऐसा कहकर हाथा पाई करने लगी, अत में बह पुरुप न्याय की याचना करने के लिये उन दोनों को राजा के पास ले गया ओर सारा बृचान्त कह सुनाया, उनका रंग-ढंग वोल एक सा <खकर राजा भी आश्चर्य में पड़ गया कि न्याय क्‍या दया ज्ञाय । अन्त मे यजा ने रानी को यह बात कद्दी दूसरे दिन रामी ने उसका ठीक न्याय कर दरिया । मद्र नाम का वलदेव इन्दं का समकालीन था। द्वारावती के राजा रद्र श्रीर उनकी रानी सुभद्राउन के माता पिता थे । स्वयंभू नामक बाधुदेश “का जन्म इसी राजा की दूसरी रानी




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