हमारे आराध्य | Hamare Aaradhya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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महाप्राण माइकेल दाकूनिन प्‌ उनके विचार ऋरान्तिकारी हो चूके ये । ड्रेलडनमें सरकारकी उनपर कुदृप्टि पास रूसी सरकारकी माँग आई कि वाकूनिनको पकड़कर हमारे यहाँ भेज दो, इसलिए वाकूनिनको वहाँसे भी भागकर पेरिस आना पड़ा और यहां वे १८४३ से १८४७ तक रहे। रूसी सरकारने उनकी जायदाद जब्त कर ली। १८४७में फ्रांसती सरकारने भी उन्हें देशनिकालेका दंड दे * दिया, इसलिए वे ब्रुसेल्स चले गये । मई सन्‌ १८४९में वे फिर ड्रेसडन श्राये । क्रान्तिकारियोंके साव उन्होंने प्रशियाकी सरकारी फ़ौजका मुक़ावला किया, पकड़े गये और जर्मन सरकारने, जैसा कि हम ऊपर लिख चुके हैँ, १४ जनवरी सन्‌ १८५०को उन्हें फाँसीका दंड सुनाया 1 १८६१में वाकूनिन साइवेरियासे भागकर जापान पहुँचे झौर वहांसे अमेरिका होते हुए लन्दन झा गये । १८६ र्ते १८७३ तक वाकूनिन अपने सिद्धान्तोंका प्रचार झरते रहे ओर इसके लिए उन्हें साम्यवादके प्रवर्तक कार्ल माक्संका घोर विरोध करना पड़ा। माकक्‍्सेके तथा वाकूनिनके सिद्धान्तोंमें वरदस्त भेद यह था कि माक्स किसी-त-किसी प्रकारकी सरकारमें विश्वास रखते थे भोर वाकूनिन पूर्ण अराजकवादी थे। किसी भी प्रकारके झासनमें उनका विश्वास ही नवा। ` वाकूनिन शौर मार्क्समें इन दोनों में सिद्धान्तोंका मतभेद तोथा ही, स्वभाव भी दोनोंका परत्यर-विरोधी था। बाकुनिन उदार तवीयतके आदमी थे श्लौर असंयत भावुकता उनमें कुट-छूटकर भरी थी; लेकिन मार्क्सने अपने भावोपर काफ़ी क़ाबू कर लिया था । बाकूनिनके व्यक्तित्वमें अदुभुत आकर्षण था। जो कोई आदमी उनके संसर्गमें आता, बह उसने व्यक्तित्वसे प्रभावित हुए विना न रहता; হু লাঙ্গল विलकुल साधि खुश्क थे और एक वार उनसे मिलनेके दाद दूसरो बार किसी सहुदय आदमीके मनमें उनके पुनर्देशनकी अभिलापा न रहती थी ।




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