भारतीय संस्कृति में जैन धर्म का योगदान | Bhartiye Sanskriti Mai Jain Dharm Ka Yogdan

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Bhartiye Sanskriti Mai Jain Dharm Ka Yogdan by डॉ हीरालाल जैन - Dr. Hiralal Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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जैन धमं की राष्ट्रीय भूमिका [ ३ निर्बाण आदि के तिमित्त से उन्होंने देश की पद पद भूमि को अपनी श्रद्धा व भक्ति का विषय बना डाला है। चाहे धमेभ्रचार के लिये हो श्रौर चाहे झ्ात्मरक्षा के लिये, जैनी कभी देश के बाहर नहीं भागे। यदि दुर्भिक्ष श्रादि विपत्तियों के समय वे कहीं गये तो देश के भीतर ही, जैसे पूर्व से पश्चिम को या उत्तर से दक्षिण को । भौर इस प्रकार उन्होंने दक्षिण भारत को भी अपनी इस श्रद्धांजलि से वंचित नहीं रखा । वहां तामिल के सुदूरवर्ती प्रदेश में भी उनके भ्रनेक बड़े बड़े श्राचाये व ग्रंथकार हुए हैं, और अनेक स्थान उनके प्राचीन मंदिरों भ्रादिके ध्वंसो से भ्राज भी अ्रलंकृत हैं। कर्नाटक प्रांत में श्रवराबेलगोला व कारकल श्रादि स्थानों पर बाहुबलि की विशाल कलापूर मूत्तियां श्राज भी इस देश की प्राचीन कला को गौरवान्वित कर रही हैं । तात्पयं यह कि समस्त भारत देश, भ्राजकी राजनेतिकं दृष्टिमात्र से ही नही, कितु भनी प्राचीनतम धामिक परम्परानुसार भी, जैनियों के लिये एक इकाई प्रौर श्वद्धामक्ति का माजन बना है । जैनी इस बात का भी कोई दावा नहीं करते कि ऐतिहासिक काल के भीतर उनका कोई साधुओं या गृहस्थो का समुदाय बड़े पैमाने पर कहीं देश के बाहर गया हो प्रौर वहां उसने कोई ऐसे मंदिर आदि भ्रपनी धारक संस्थाये स्थापित की हो, जिनकी मक्ति के कारण उनके देशप्रेम में लेशमात्र भी शिथिलता या विभाजन उत्पन्न हो सके । इसप्रकार प्रान्तीयता की संकुचित भावना एवं देशबाह्य भ्रनुचित अनुराग के दोषों से निष्कलंक रहते हुए जैनियों की देशभक्ति सर्देव विघुद्ध, अचल झौर स्थिर कही जा सकती है । देशभक्ति केवल भूमिगत ही हो सो बात नही है। जैनियों ने लोक-भावनाश्रों के संबंध में भी अपनी वही उदार नीति रखी है। भाषा के प्रश्न को ले लीजिये । वैदिक परम्परा में संस्कृत भाषा का बड़ा श्रादर रहा है, और उसे ही दैवी वाक्‌' मानकर सदेव उसी में साहित्य-रचना की है। इस मान्यता का यह परिणाम तो झच्छा हुआ किं उसके द्वारा प्राचीनतम साहित्य वेदो भ्रादि की भके प्रकार रक्षा हो गईतथा भाषा भी उत्तरोत्तर खूब मंजती गई । किन्तु इससे एकं बडी हानि यह हुई कि उस परम्परा के कोई दो तीन हजार वर्षो मे उत्पन्न विशाल साहित्य के भीतर ततूततका- लिक भिन्‍न प्रदेशीय लोक-भाषाझों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं हो पाया । भगवान्‌ बुद्ध ने अपने उपदेश का माध्यम उस समय की एक लोक-भाषा मागधी को बनाया झौर अपने शिष्यो को यह प्रादेश मी दिया कि धर्म उपदेश के लिये लोकभाषाओं का ही उपयोग किया जाय । किन्तु बौद्ध परम्परा के साहित्यिक उस आदेश का पूरौ- तथा पालन न कर सके | उन्हें एक पालि भाषा से हीं मोह हो गया और बह इतना




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