नवरस | Navras
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
38 MB
कुल पष्ठ :
648
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)२ नवरस
श्राचाय्यं विश्वनाथ का भी यही मत है । भोज, जयदेव, वाग्-
भ्वादि ने रस को प्रधान माना है; किन्तु विश्वनाथ की भाँति रस
को काव्य का एकमात्र लक्षण नहीं कहा है। उन्होंने सब मतो
को मिलाना चाहा है | उदाहरणतः वाग्भट्रकृृत निम्नलिखित ज्छोक
देखिये-
साधुशब्दा्थ सन्दर्भ गुणालङ्कारभूषितम् ।
स्फुटरीतिरसोपेतं का्यं कुर्बीत कीत्तये ॥
अ्रथोत् शब्द ओर अथ की साधुता के सौन्द्य्य स भरा गुण
ओर अल्लारो से विभूषित रीति तथा रस के सहित काव्य को
यश के लिये लिखना चाहिये ।
इन सब बातो का लिखना वेसा ही है जैसे आफत का
मारा मनुष्य सब देवताओ की पूजा करता है। महात्मा तुलसी-
दास के शब्दों मे वह “बरी बरी में नोन” देता है। ऐसी परि-
भाषा मे किसीकी प्रधानता नहीं रहती । 'एकहि साधे सब सघधे'
की-सी व्यापकता नही है। ऐसी व्यापकता है किससे ? इसका
निर्णय सब मतो की विवेचना करने के पश्चात् अन्त में किया
जायगा ।
यहाँ पर इतना बतला देना आवश्यक है कि रस क्या है ९
व्युत्पत्ति से रस का अथ इस प्रकार है--“रस्यते आस्वादते इति
रसः अथौत् जिसका आस्वादन किया जाय वह रस है । इस
आस्वादन मे आनन्द लक्षित रहता है । यदो पर॒ रस के विषय
मे इतना ही का जाता है ।
(२) अलङार-मत-अलङ्कार को प्रधानता देनेवाले यचार्य्यो
मे उद्भट) दण्डी श्योर रुद्रट प्रधान है। उद्धरादि ने गुण और
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