गीति काव्य | Geeti Kavaya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० गीति-काव्य श्रीजयरेवभणितमिदमुद्यति हस्चिरणस्पृतिसारम्‌ । सरसवसन्तसमयवनवणेनमनुगतमदनविकारम्‌ विह ` सरस वसन्त समय वम वर्णनम्‌ द्वारा इसकी व्णन-परियता प्रकर है; वसन्त सग, रूपक तार ओर मध्य ख्य दै एव छ्य नामक छन्द मी | इस गीतमे विप्रम्भाख्य श्ङ्खारका वणन है । सङ्धीतके शाख्मीय आग्रह और अपेक्षाइत आत्म-निश्ताके अभाव मे इसे गीत-काव्यके अन्तर्गत न मानकर गीत मानना ही उपयुक्त होगा । गगा-लहरी? आदिके सम्बन्धम भी यह कथन अनुपयुक्त नदी , यच्रपि पडितराज जगन्नाथमे गीति काव्यत्वका उन्मेष अधिक है । इस प्रकार सस्कृत-सादित्यमे द्ध गीति- काग्यका अमाव-सा है ओर रोक-गीतोका प्रभावं उसपर परोक्ष रूपमे ভাই । प्रारम्भिक कथाओके आधारपर आख्यान्‌ काव्य बने किन्तु वैयक्तिक भावनाके प्रसारके अधिक अनुकर न होनेके कारण रोक-गौतोकी परम्पर- मे साहित्यिकताका आग्रह टाकर नये रूप-विधानकी सृष्टि हुई ओर उसका विकास वैयक्तिक हास-अश्च तत्वसे युक्त आख्यान काव्य ओर स्वतन्र गीतो- के रूपमे हुआ ओर इन्‌ गीतोकी परग्परमे क्रमशः गीति-काव्यका विकास हुआ । क्रमिक विकास प्राथमिक अवस्थामे गीत गेय थे | गीतोमे भाव-प्रसारके लिए काव्यत्व का अधिक आग्रह न था । मिलन-विरह, हर्ष-शोक, आननन्‍्द-विंषादका चित्र मावकुताद्वार नहीं बल्कि सन्नीत और गेयताद्वार उपस्थित किया जाता था। आनन्दकी रागात्मक अभिव्यक्ति विषादकी अभिव्यक्तिसे विभिन है ओर इस प्रकारके गीतोमे केवल इनकी अभिव्यक्ति- का आग्रहं था] इस अवस्थामे शब्दका कोई महत्त्व नहीं था. एवं विपय-




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