दिगम्बर जैन सिध्दान्त दर्पण | Digamber Jain Sidhdant Darpan
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
19 MB
कुल पष्ठ :
326
श्रेणी :
यदि इस पुस्तक की जानकारी में कोई त्रुटि है या फिर आपको इस पुस्तक से सम्बंधित कोई भी सुझाव अथवा शिकायत है तो उसे यहाँ दर्ज कर सकते हैं
लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about रामप्रसाद शास्त्री - Ramprasad Shastri
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)[११
गुणस्थान तक ही होता दै । दूसरे खी चञ्च को त्याग
नहीं कर सकती इसलिये उसके रां चवां गुणस्थान दी
हो सकता है ।
अब “भावसंयमस्तासां सवाससमप्यविरुद्ध+ः यह
दूसरो शंत्रा इस बात को सूचित करती है कि লন্তা-
सहित होने से भत्ते ही दिखाऊं द्वष्यरूप पांचचां
गुणर्थान मानो परन्तु भाव की अपेक्षा तो उनके
संयम हो सकता ই अथात् संयम होना उनके विरुद्ध
नहीं है। इसका समाधान घचलाकार লি ভালা,
कायरता, आततायी दुराचारी दुष्टों द्वारा शीज-
खण्डन का भय, आदि के कारण ब़्ियां वस्त्र नहीं
छोड़ सकतों उस बात को लक्ष्य करके “न तासां भाव-
संयमो 5स्ति' इत्य(दि रूप से समावान किया दै।
असलियत में देखा जाय तो जो वस्त्रधारी हैं
उन सभी को यह समाधान ज्ञागू पड़ता दे कारण कि
जो कायर हैं परीषद्द नहीं सह सकते तथा मसत्व
परिण!मी हैं वे ही वस्त्र का त्याग नहों कर सकते
ओर जो वस्त्र का त्याग नहीं कर सकते वे कभी भरी
संयम के धारक नहीं दोते। क्योंकि बस्त्रधारी के
परिणाम इतने उज्ज्त्रत्ञ नहीं होते जिससे कि उनके
संयप्त की प्राप्ति हो कर वे सयत हो रके । दिगम्बर
मुनि क ऊपर कोई वस्त्र डाल दे तो वह उनका
इच्छानुसारी वन्त्र नही है । किन्तु बह उन्तके ऊपर
परिणास सलिनता का साधन होने से उपसगरो है|
इसलिये मुनि परिणाम म लनता के साधन चस्त्र का
कदापि ग्रहण नहीं करते हैं ।
जो लोग चरत्र को परिणाम उज्ज्वज्ञता का साधन
सममते हैं वे उस विपय के तत्वचितन से कोसों दूर
है। क्योंकि অল সহ্য में पहले ही आत्मत्न॒ल का
अभाव सूचित होता है ओर च्न्तरङ्ग लोभ का अनु-
भव होता हे अत्तः सच्च संयत कैसे हो सकता डे!
संयत होने के लिये तो तिल तुष मान्न भी परिग्रह का
ग्रहण नहीं होता फिर चस्त्र ग्रहण तो संयम का
साधक भी क्यों कर दो सकता है ९ क्योंकि संयत
के तो शरीर से भी जब निष्पृहरता है तब वस्त्र से
स्दता क्योंकर सम्भवित दो सकती दे !
इस प्रकरणम यं एक शका यह उपरस्थिन होती
दे फिदिगम्मेर सम्प्रदाय में द्रव्यश्षियों को ज्ञायिक-
सम्यकत्त्र नहीं होता है कारण कि-श्रीपूज्यपादकृत
स्वार्थ सिद्धि में 'क्ञायिकं पुनभाविनेष” इस भकार
लिखा हे ।
उसका समाधान यह है कि- जिस सम्यक्त्व से
मोत्त जान साना हे चह त्तायिक सम्यक्स्वे द्रव्यस्री
के नहीं दोता दे ऐसा श्री सबोथसिद्धिकोौर का
आशय হী सकता है, नहीं वो द्वव्यन्नी के ज्ञायिक
सम्यकक््॒ तो अवश्य होता है इस्रके लिये निम्न-
लिखित प्रमाण श्री गोम्मटसार जीवकांड सम्यक्त्व-
सागेणा गाथा ० ! को जीवतत्व प्रबोधिकी टीका का
मुद्रित प्रति १९४१ पत्न में लिखा दै--
क्ञायिक सम्यक्त्वं तु भसंयतादिचतुगुशस्थान-
सनुष्याणां, अप्॑यत-देशसंयतोपचागमद्दात्रतमनु-
ष्यिणीनां च कम मूमिवेदक पम्यम्टर्शनासेब केवली-
श्रतकेवलिदृय भी पादापांते सप्त-क्ितिनिरवशेषक्ष ये
भचति ।
ই সলভ रीका के प्रमाण से यह बात
निश्चितरूप से समझ में आ जाती है कि द्रग्यश्ली के
ज्ञायिक सम्यक्त्व अचश्य होता दै। इस टीका में
'देश संयतोपचार मदात्रतः पद् दै बह द्रव्यद्धी को
छठे गुणस्थान आदि का निषेघक है । इसी तरह
सूत्र ६३ में भी यह बात सिद्ध होती दै कि वहां
User Reviews
No Reviews | Add Yours...