संत तुकाराम | Saant Tukaram

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Saant Tukaram by हरि रामचंद्र दिवेकर - Hari Ramchandra Divekar

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about हरि रामचंद्र दिवेकर - Hari Ramchandra Divekar

Add Infomation AboutHari Ramchandra Divekar

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
৮৯ ह महाराष्ट्र भक्ति घम [ १६ आप फी वाणी से अमंगों का प्रवाह एक-सा निकलता रहता । परिणाम यह हुआ कि नामदेवजी के घर के सभी लोग अमभंग रचने लगे। पिता दामाशेटी, माता गोणाई, र्त्री राजाई; नारा, महादा, गोंदा ओर विठा नाम के चार पुत्र तथा उन की लाडाई, गोडाई, येसाई और साखराई नाम की चार स्रियाँ, लड़की सिंवाई ओर बहिन आऊदवाई ही नहीं; किंतु उन के घर में काम करनेवाली दासी जनावाई भी ईश्वर-भक्ति पर अ्रभंग रचने लगी। कहा जाता है कि इन सबों ने मिल कर ६६ लाख अमभंग रचे। বামন বহু कि इन की अमंग-रचना बहुत बड़ी थी। नामदेवजी की भक्ति का और इन की कविता का नाम बड़ी दृर-दूर तक फैला । श्रीज्ञानेश्वर के साथ इन्दं ने बड़ी दृर-दूर की तीथ -यात्रा की | नामदेव जी का एक मंदिर पंजाब में भी पाया गया हे और, सिक्‍ख धर्म के ग्रंथ साहब में भी आप के कुछ श्रभंग पद वर्तमान हैं। यह भक्तराज अस्सी वर्ष तक इस दुनिया में रहे ओर पंदरपुर की तथा विछल-भक्ति की महिसा खूब बढ़ा कर ई० ११८० में दिवंगत हुए | ज्ञानेश्वर और नामदेव के समय में मानों महाराष्ट्र में संतों की फ़तल सी आई थी | हर एक जाति का एक न एक संत था ही । कुम्हारों में गोबा और सका, मालिर्यो मं सविता सुनारों में नरहरि, तेलियों में जोगा, चूड़ी बनानेवालों में शामा नाम के साधु प्रसिद्ध थे । वेश्याओं में भी कान्होपात्रा नामक एक भक्त स्त्री थी। और तो क्या ब्रिल्कुल नीच काम करनेवाले और अस्पृश्य समझे जानेवाले महार जाति के लोगों म॑ भी बंका श्रीर তা नाम के दो साधु विद्यमान थे | इन में से कई ज्ञानेश्वर नामदेव के साथ तीथ -यात्रा में भी शामिल थे । इस तरह मद्दाराष्ट्रीय संतों की कीर्ति भारत भर में फेल रद्दी थी। इन साथु-पुरुषों ने देश भर में प्रेम की वृष्टि की और इस अ्मृत-वर्षा से सब प्रकार का भेदभाव नष्ट हो कर महाराष्ट्र भर में प्रेम-माव फैल गया। इन साधु-संतों में एक विशेषता यह थी कि ये कभी भीख नहीं माँगते थे | अपने-अपने काम करना और आसाद़ झोर कार्तिक की एकादर्शी के पंदरपुर में एकत्र होना, इन का कार्य-क्रम था। आपस में जात-पांत नूल कर पर पड़ना, गले लगना, एक दूसरे की कविता लिखना और गाना और रुब मिल कर एक दिल से श्रीमिद्दल का भजन करना, यही इन का धर्म था । चंद्रभागा के तट की रेती में देह-माव भूल कर विद्वल की गर्जना करना ओर उसी प्रेम में आनंद से नाचना यही इन का द्वत था| इन का आझाच- रण अत्यंत शुद्ध रहने के कारण तत्कालीन तमाज पर इन का बड़ा श्सर पड़ता था। जाति-भेद तोडने का परकर श्रौर खुल्लम-ख॒ल्ला उपदेशा ये कभी नहीं देत य; परंतु इन के सात्विक श्राचरण में मेद-भाव को स्थान ही न था। भेद नहीं अभेद हथ्या हे, राम भरा 5 सारा! यह उन की कल्पना थी । इृश्वर-भक्ति का छो भूखा है, वह जात-पाँन नहीं देखता, জি বা जैसा भाव हो उस को देसा ही मिलता हूँ, यही हन का झुख्य उपदेश या। इन सब पारणों से उस समय महाराष्ट्र भर में भक्ति और प्रेम का साम्राज्य हो रहा था | परंठ नुललमान लोगों का झाह्ममण नर्मदा के दक्तिण में ददूत ही यह स्थिति बदलने लगी | देवगिरि के जिस यादव-छल के राज्य में হালা শাদা লম্বা गच्छन्ति কী वृद्धि होती थी उस में यादवों दा राज्य नष्ट होते ही बड़ा मारी खंड पद | देवगि उल गयम थे ৬. ক রি তু = = ৬ রে স ২তম্ালা সিল जूस गया ऋर उसका क साथ नहारोष्ट्र ऋ दर হিল द्रापः | दृग ह




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now