हस्तक्षेप | Hastakshep

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Hastakshep by नरेन्द्र निर्मोही - Narendra Nirmohi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दिक्कतों, टूटते-विखरते सं वंघों, विघटित होते पुराने मूल्यों श्र नए मूत्यों को लेकर श्रनेक विषय हो सकते हैं। जीवन को उसकी पूरी समग्रता में समकने, झरांकने और झभिव्यक्त करने के लिए चस्तुगत सत्य, सामाजिक सत्य व व्यक्तिगत सत्य को घनीथूत करने की नितांत आवश्यकता होती है । किसी एक के अभाव में रचना में शिथिलता आ जाना स्वाभाविक है चूकि जीवन इन सभी सत्यों से परिचालित होता है । साहित्य की साथंक्षता उसके मौलिक होने में है । चेतना ही व्यक्ति के भीतर की मौलिकता को प्रस्फुट्त करती है। जीवन के प्रति गहरी आस्था व उत्सुकता के फलस्वरूप ही साहित्यकार जीवन के विभिन्‍न पहलुग्ों को नूतन दृष्टि से प्रस्तुत करता है। चेतना के क्रमिक विकास के लिए हमें जनता के इतिहास, सामाजिक, राजनैतिक पदुघतियों, उनकी लोकक्तिओं, कहावतों से समुचित ज्ञान अजित करना चाहिए । प्रतिभा का सहज विकास तभी संभव है । यहां एक सहज प्रइन उठता है कि चेतना कैसी हो ? किस वर्ग से जुड़े ? समाज के किस हिस्से के प्रति अधिक क्रिया- च्ील हो ? साहित्य में विश्षेषतः कथा साहित्य में उसकी क्या भूमिका हो ? यथायथें व्यक्ति, समाज, व्यवस्था के श्रापसी तालमेल द खिंचाव का प्र तिफलन है । यह शभ्रद्ध विकसित चेतना का ही परिणाम है कि वतमान कथा लेखन में गरीवी की कहानियों में समस्याएं अमृत तथा गरीबी का इंद्रजाल अधिक है। हाय रे इन्सान की मजवूरियां, वाह रे भाग्य, क्या इच्सान जानवर से थी गया गुजरा हो गया है ? जेसे द्याव्दों की भरमार रहती है वहीं दूसरी ओर ऐसे-ऐसे क्रांतिकारी चरित्र प्रस्तुत किए जाते हैं कि उन पर यकीं करना ही असंभव लगता है ! पूरी रचना में कहीं कोई चेतना, दंद, सोच, कल्पना दृष्टिगोचर नहीं होती । जीवन के प्रति कोई जुड़ाव नहीं, कोई चिंता उसे प्रभावित नहीं करती । पूरे 15




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