आनन्दघन - ग्रंथावली | Anandaghan - Granthavali

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Anandaghan - Granthavali by उमराव चन्द जैन - Umarav Chand Jain

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about उमराव चन्द जैन - Umarav Chand Jain

Add Infomation AboutUmarav Chand Jain

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
( ११ ) प्रच्छी सफलता मिली । जनता इनके पदो की ओर अत्यधिक आक्ृष्ठ हुई । ये पद हमारे विचार से एक साथ नहीं बनाये गये थें। इनका रचना काल भी लम्बा मालुम पडता है। ऐसा लगता है कि समय-समय पर अलग-अलग स्थानों पर ये पद बनाये गये थे । चौब्रीसी की रचना पर विचार करने से तो यह श्रनुभव होता है कि चौवीसी की रचना के समय श्री आनन्दघन जेन श्रागम निष्णात हो छुके थे और साधना के उत्कृष्ट मार्ग पर अग्रमर थे स्तवनौ कीं गम्भीरता भी यही प्रकट करती है कि वह पूर्ण वयस्क तथा साधनारत थे । यह समय स० १७०० के आस पास अथवा इससे कुछ अधिक होना चाहिये । जबकि वह प्रौढ श्रवस्था के लगभग होगे । इनकी अवस्था के सम्बन्ध मे विचार करते हुये इनकी रचनाओो के सम्पादको ने लिखा ई-- “यह उपाध्यायश्री यशोविजयजी के समकालीन थे और श्री उपाध्याय जी का इनसे मिनन हुप्ना था | साथ ही श्री उपाध्यायजी से ये कुछ वयस्क भी थे | श्री उपोष्याय जी ने इनकी स्तुति मे एक अष्टपदी की रचना भी क्री थी, जो इस प्रकार है --- प्रथम पद राग-कानडो मारग चलत चलत जात, आनन्दघन प्यारे रहत आनन्द भरपूर । ताको सस्प भूपं লিষ্ট लोफतेन्यारो बरषत मुखपर नूर।१॥ सुमति सखी के संग नित नित दोरतं कवहुंनहोतही दूर। 'जसविजय' के सुनो आनेदघन । हम तुम मिले ह्जूर ॥२॥ द्वितीय पद आनंदघन को आनंद सुजश ही गावत रहत आनंद सुमता संग । सुमति सखी ओर नवल आनंदवन मिल रहे गंग-तरंग ॥१॥ मन मंजन करके निर्मल कियो है चित्त, तापर लगायो है अविहड रंग । 'जसविजय' कहे सनत ही देखो, सुख पायो भोत अभंग ।1२॥ तृतीय पद, राग-नायकी, चम्पक ताल आनंद कोड नहि पा्वं जोड पावै सोई आनंदधन ध्यावे आनंद कौन रूप कौन आनन्दघन, आनन्द गुण कौन लखावै ।1१॥




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now