अथर्ववेद का सुबोध भाष्य भाग - 2 | Atharvaved Ka Subodh Bhashya Bhag - 2

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Book Image : अथर्ववेद का सुबोध भाष्य भाग - 2  - Atharvaved Ka Subodh Bhashya Bhag - 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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काण्डोका परिचय ] शंखेन हत्वा रक्षांसि अधिणो वि षहामरे ( ५१०। २ )-- इंखसे रोगकृमियों की सारकर हम ( रक्त-)} सक्षकोंको पराभूत करते हैं। ( रक्षः- रोगकृमि, रोगबीज | अन्निः- सक्षक, रक्तसक्षक। ) इंखेनामीवाममर्ति शंखेनोत सदान्वाः ( ४१०३ )-- शंखसे भामरोग, बुद्धिहीनता तथा द्रंखसे सदा पीडा करनेवाले रोग दूर द्वोते हैं । হারা লী विश्वभेषजः, शनः पात्वंहसः शंख सष रोगोंका श्ौषधघ है वह इश्ता दूर करनेवारा हमें पापसे चचावे । दोष्वप्न्यं दौजीवित्यं रक्षों अभ्वमराय्यः । दुर्णास्रीः सर्चा दवांच:, ता अस्मन्नाशवामसि ( ४१ण ७ )- बुरे खप्न, दुःखदायी जीवन, रोगकृसि, निबं- छता, निस्तेज, दुष्ट नामव रोग, यह सब हमसे दूर हों कौर नष्ट हों ।( हमारा उत्तम संरक्षण दो। ) छ्थामार तृष्णामार अगोतां अनपत्यतां, अपामाग ] सवया वय सवं तदप सुज्महे ( ४।१७।९ )- क्षुधा भार तृष्णाके रोग, वाणीके दोष, संतान न होना भादि दोष दे क्षपामार्ग | तेरी सद्दायतासे यद्द सब हम दूर करते हैं । अपामार्ग ओषधीनां सर्वासां एक इद्धशी, तेन ते स्ज्म आशतं, अथ त्वं अगद्श्चर 1 (४।१७। 4 )-- दे कपामाग | तू सब भोषधोयोंको वश करनेचाछा है, इस कारण तेरे द्वारा दम द्ारीरस्थित्त रोगको दूर करते हैं । द्वे रोगी ! भव॑ त्‌ नीरोग होकर স্ব | अपमज्य यातुधानानप खबी अराय्यः ( 8।१८।८ )-- यातना देनेवाके तथा निस्तेजता बढानेवाके (रोग- बीजको हम णपामार्गसे दूर करते हैं । ) उत त्रातालि पाकस्याथो हन्तासि रक्षसः ८ ४१९। ३ )-- है क्षपामाग ! तू परिपक्रताका रक्षक झौर रोगकऊृमियोंका नाशक है । प* ऊृत्याइन्सूठलकऊद्यात थधादा बनते तास्मन्चत्त वज्ध सभा (४1२८६ }-- जो हिंसक है, जो मुझको काटता है ऐसे यावना देनेवालूपर तुम दोनों बच्च मारो । (१५) देसे भपना रक्षण होना चादिये । सपना समर्य बढना चाहिये | क्षपने साधन उत्तम रहने चाहिये। उत्तमसे खप्तम शख भौर भख सपने पास रने चाहिये । निषसे पना रक्षण होगा भौर हम विजयी हे सक्षगे । पापमोचन अप नः शोशुचदघम्‌ (४,३३।१ )-- हमारा पाप दूर हो । अमे शुशुग्ध्या रायि-- दे भे | घनऊो शुद्ध कर । सुक्षेत्रिया सुगात॒या वखूथा च यजञामहे (७1३३२)-- उत्तम क्षेत्र, उत्तम भूमि तथा घनसे यज्ञ करते हैं । प्र यत्ते अभ्ने खूरयो जायेमहि प्र ते वथम्‌ ( ४।६३।४ ) -- दे भन्ने | जोतेरे विद्वान्‌ है, वैसे हम हो जर्येगे। प्र यदभ्चेः स्टखतो विश्वतो यन्ति भानवः ( ४।१६। )-- बलवान्‌ णभिके किरण जैसे चारों जोर फेलत हैं। ( देसा हमारा तेज फले । ) त्वं हि विश्वतो मुख विभ्वतः परिभूरखि ( ४1३३।६) -- तू खष भोर मुखधाला दो । तू सब शोरसे चारों ओर हो ( तू स्श्न व्यापक हो। ) द्विषो नो विश्वतोमुख अति नावेव पारय ( ४।६३। ७ )- हे सव घोर सुखवङे, शघ्रु्भोसे मे पार करालो, जैसे नोकासे सागर पार करते हैं । खस नः सिन्धृ॒मिव नावाति पर्षा खस्तये-- ( ४1३३॥ ८ )-- वह हमें नौकाते सागरकों पार करते हैं वेसे कल्याण प्राप्त करनेके लिये हसें दुःखसे पार करे । एकता सं जानीध्वं ( ६६४।१ )-- मिलकर रहनेका छान प्राप्त करो | ध्वं -- मिरूकर एक द्ोकर रहो । मनांसि जानताम्‌-- भपने मनोंकों झुभसंस्कार- संपन्न करो | देवा भागं यथा पूव संजानाना उपासते-- प्राचीन- कालके ज्ञानी छोंग जिस तरह भपने कतेग्यक! भाग खय॑ं करते थे, वेसा तुम करो । समानों मन्त्रः ( ६६६४।२ )--तुम्दारा विचार समान हो । समितिः समानी-- दम्हारी समा सवके लिये समान हो। समानं नतं-- दम्हारा सवका एक घत हो । खपु ॐ भ सव




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