अथर्ववेद का सुबोध भाष्य भाग - 2 | Atharvaved Ka Subodh Bhashya Bhag - 2
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
27 MB
कुल पष्ठ :
430
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)काण्डोका परिचय ]
शंखेन हत्वा रक्षांसि अधिणो वि षहामरे ( ५१०।
२ )-- इंखसे रोगकृमियों की सारकर हम ( रक्त-)}
सक्षकोंको पराभूत करते हैं। ( रक्षः- रोगकृमि,
रोगबीज | अन्निः- सक्षक, रक्तसक्षक। )
इंखेनामीवाममर्ति शंखेनोत सदान्वाः ( ४१०३ )--
शंखसे भामरोग, बुद्धिहीनता तथा द्रंखसे सदा पीडा
करनेवाले रोग दूर द्वोते हैं ।
হারা লী विश्वभेषजः, शनः पात्वंहसः शंख सष
रोगोंका श्ौषधघ है वह इश्ता दूर करनेवारा हमें
पापसे चचावे ।
दोष्वप्न्यं दौजीवित्यं रक्षों अभ्वमराय्यः । दुर्णास्रीः
सर्चा दवांच:, ता अस्मन्नाशवामसि ( ४१ण
७ )- बुरे खप्न, दुःखदायी जीवन, रोगकृसि, निबं-
छता, निस्तेज, दुष्ट नामव रोग, यह सब हमसे
दूर हों कौर नष्ट हों ।( हमारा उत्तम संरक्षण दो। )
छ्थामार तृष्णामार अगोतां अनपत्यतां, अपामाग ]
सवया वय सवं तदप सुज्महे ( ४।१७।९ )-
क्षुधा भार तृष्णाके रोग, वाणीके दोष, संतान न
होना भादि दोष दे क्षपामार्ग | तेरी सद्दायतासे यद्द
सब हम दूर करते हैं ।
अपामार्ग ओषधीनां सर्वासां एक इद्धशी, तेन ते
स्ज्म आशतं, अथ त्वं अगद्श्चर 1 (४।१७।
4 )-- दे कपामाग | तू सब भोषधोयोंको वश
करनेचाछा है, इस कारण तेरे द्वारा दम द्ारीरस्थित्त
रोगको दूर करते हैं । द्वे रोगी ! भव॑ त् नीरोग होकर
স্ব |
अपमज्य यातुधानानप खबी अराय्यः ( 8।१८।८ )--
यातना देनेवाके तथा निस्तेजता बढानेवाके (रोग-
बीजको हम णपामार्गसे दूर करते हैं । )
उत त्रातालि पाकस्याथो हन्तासि रक्षसः ८ ४१९।
३ )-- है क्षपामाग ! तू परिपक्रताका रक्षक झौर
रोगकऊृमियोंका नाशक है ।
प* ऊृत्याइन्सूठलकऊद्यात थधादा बनते तास्मन्चत्त वज्ध
सभा (४1२८६ }-- जो हिंसक है, जो मुझको
काटता है ऐसे यावना देनेवालूपर तुम दोनों बच्च
मारो ।
(१५)
देसे भपना रक्षण होना चादिये । सपना समर्य
बढना चाहिये | क्षपने साधन उत्तम रहने चाहिये। उत्तमसे
खप्तम शख भौर भख सपने पास रने चाहिये । निषसे
पना रक्षण होगा भौर हम विजयी हे सक्षगे ।
पापमोचन
अप नः शोशुचदघम् (४,३३।१ )-- हमारा पाप
दूर हो ।
अमे शुशुग्ध्या रायि-- दे भे | घनऊो शुद्ध कर ।
सुक्षेत्रिया सुगात॒या वखूथा च यजञामहे (७1३३२)--
उत्तम क्षेत्र, उत्तम भूमि तथा घनसे यज्ञ करते हैं ।
प्र यत्ते अभ्ने खूरयो जायेमहि प्र ते वथम् ( ४।६३।४ )
-- दे भन्ने | जोतेरे विद्वान् है, वैसे हम हो जर्येगे।
प्र यदभ्चेः स्टखतो विश्वतो यन्ति भानवः ( ४।१६।
)-- बलवान् णभिके किरण जैसे चारों जोर फेलत
हैं। ( देसा हमारा तेज फले । )
त्वं हि विश्वतो मुख विभ्वतः परिभूरखि ( ४1३३।६)
-- तू खष भोर मुखधाला दो । तू सब शोरसे चारों
ओर हो ( तू स्श्न व्यापक हो। )
द्विषो नो विश्वतोमुख अति नावेव पारय ( ४।६३।
७ )- हे सव घोर सुखवङे, शघ्रु्भोसे मे पार
करालो, जैसे नोकासे सागर पार करते हैं ।
खस नः सिन्धृ॒मिव नावाति पर्षा खस्तये-- ( ४1३३॥
८ )-- वह हमें नौकाते सागरकों पार करते हैं वेसे
कल्याण प्राप्त करनेके लिये हसें दुःखसे पार करे ।
एकता
सं जानीध्वं ( ६६४।१ )-- मिलकर रहनेका छान प्राप्त
करो |
ध्वं -- मिरूकर एक द्ोकर रहो ।
मनांसि जानताम्-- भपने मनोंकों झुभसंस्कार-
संपन्न करो |
देवा भागं यथा पूव संजानाना उपासते-- प्राचीन-
कालके ज्ञानी छोंग जिस तरह भपने कतेग्यक! भाग
खय॑ं करते थे, वेसा तुम करो ।
समानों मन्त्रः ( ६६६४।२ )--तुम्दारा विचार समान हो ।
समितिः समानी-- दम्हारी समा सवके लिये समान हो।
समानं नतं-- दम्हारा सवका एक घत हो ।
खपु
ॐ भ
सव
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