दिल की बात | Dil Ki Bat

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Dil Ki Bat by गुरुदयाल मलिक - Gurudayal Malik

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दिल्‍ली में हजरत इसा दजरत इसा के रिजरक्शन श्रथात्‌ उनके फिर से जर्मन पर त्राने वा दिन था । सुबह को वक्त था । हजरत इंसा के श्राने की खुश कैली हुई थी । अपने झनुयाइवो की लापरवाही की धूल से उपर उठकर हजरत ईसा फिर जमीन पर उतर श्राप । बसन्त ऋतु की हवा ने उनसे दिल्‍ली शहर का एक चक्कर लगाने के लिए कहा । सुदम शरीर घारण करके वे राजधानी की सडको श्र गलियों में घूमने लगे । वे सबको श्र सब चीजों को देखते थे । पर उन्हें उस भीड-भाड में कोई न देख पाता था क्योकि सब लोग लड़ाई जीतने के सबसे महत्वपूण काम में लगे हुये थे । इसलिए उनकी नजर दी प्रि्स आफ पीस? शान्ति के सम्राट पर जा ही कैसे सकती थी जानबूभक कर वे पहले नई टिल्‍ली गए क्योकि नई दिल्‍ली नाम से उन्हे यह खयाल हुछ्ा कि वहाँ के रहने वालो का कारबार उनको ख्वाहिश श्रौर उनके ादर्शों में एक नयापन होगा । किन्तु अग्रेजी मुद्दावरा है कि लड़ाई मे श्रादमियों श्र चूहों सब की कीमत बदल जाती है। इजरत इंसा सैक्रेटेरियट की चहारदीवारी के अन्दर के पाक मैदान में घुसे ही थे कि वहाँ के काम करने वालो की पोशाक के रंग को देखकर वह दक्के-बक्के से रह गए. । उनमे से ज्यादहतर खाकी पहने थे कुदरती तौर पर हजरत ईसा ने यह नतीजा निकाला कि इनसानी कौम ने श्रभी तक लडने को ही श्रपनी मिली-जुली समाजी जिन्दगी का खास शसूल बना रखा है । उसने श्रभी इसे छोडा नहीं है । हजरत ने बडी गहरी दर्दभरी श्रावाज से कहा-- क्या में सचमुच फिर से ज़मीन पर झा गया हूँ? मेरे उन शब्दों वा कि मैं दुनियाँ में शान्ति नहीं लाया बल्कि एक भि तलवार लाया हूँ यदद कैसा झफ़्सोसनाक अथ लगाना श्रौर उनका




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