साध्र्द शताब्दी | Sardh Shabadhi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(ই) : दादा साहव को वेदौ सम्वत्‌ १६३५ आपाढदू शुक्ल १३ को . बावूं फ्लचन्द जी तखत ने बतवांयी । सम्बत्‌ १६४० मिती : फागृंण सुदि ५ को सेठ रामचन्द्र के पुत्र सिताबचन्दनी की माता गुलावो ने पावनाय जी के पास देवकुलिका वनवायी | -जिसकी प्रतिष्ठा नन्दीवर्दनसूरि जी के रिष्य पत्तालालजी - ने करवायी। इसके अतिरिक्त समय-समय पर प्रतिमाएँ, यन्त आदि प्रतिष्ठित होते रहे । सम्बत्‌ १६७६ में उ० | 'जयचम्द्रजी ने ` वि्तिध्यानक टर की स्थापना एवं ५ | १६८७ मे चक्रायुधं गणधर की प्रतिमा प्रतिष्ठित की। ছু मन्दिर में सबसे प्राचीन ऋषभदेव प्रभु को धातुमय ह॒ हि कलापं प्रतिमा 'है जिस पर सं० १०८३ का अभिलेख खुदा है । हुआ है ४ | 5: नऋषभनाथ वीतंनायां पत्नी सं० मूल सत्क ॥ सं० १०- | ८३ वेण्सु० १४ ॥ | इसके वादं बारहवीं शताब्दी से अबतक की प्रतिष्ठित . - संख्यावद्ध प्रतिमाएँ हैं जिनके अभिलेख यहां स्थानाभाव से देना सम्भव नहींहै। इर मन्दिरजी कौ पुरानी खाता वहियां भी इस मन्दिर की कहानी में एक महत्वपूर्णं योगदान प्रदान करती हैं और वह भी जीर्णशीर्ण दशा में या नवीनता या साज-सजा के आकर्षण से दुर प्राचीनता एवे धूमिता का आवरण लेकर अपने में एक इतिहास संजोये हुए हैं। अतः: उनका भी कुछ वर्णन कर देना आवश्यक है वधोकि उषसे भो मन्दिर के इतिहास प्र प्रकाश पडता है । मन्दिर के पुराने खति वही मन्दिर के पुराने खातों. को देखने से पत्ता चलता है कि यद्यपि जलवायु की प्रतिकूऊता और दीमकों आदि की कृपा से बहुतसी वहियां सर्वथा और अंशतः नष्ट हो चुकी हैँ, परन्तु जो कुछ भी बच पायी हैं उससे तत्कालीन व्यवस्था; मन्दिर की अवस्था और इतिहास पर काफी प्रकाश पड़ता है । सम्वत्‌ ८८३ से आंकड़े उपलब्ध है और उन तलपटों से विदित होता है कि मन्दिरजी की आमदनी के जरियों से कार्तिक महोत्सव, स्नात्र पुजा-दैनिक, वड़ी पूजाएँ, चढ़ापा एवं व्याज मुख्य हैं | मन्दिरजी में रु० ३,००० कीं ईस्ट इण्डिया कम्पनी की रसीदें जमा पूंजी धीरजर्सिह विसेसरदास जी के नाम से जमा आ रही थी, सम्भवतः ये वे ही धीरजसिहजी थे, जिन्होंने ऋषभदेव भगवान का देहरासर स्थापित किया था । परिचय प्राप्त नहीं है । गुरुजनों के चातुर्मास प्राचीन काल में बंगाल में साधुओं का चातुर्मास दुर्गम था और यत्ति समाज सर्वत्र विचरकर श्रावक वर्ग को धर्म- ध्यान द्वारा उपकृत करता था। पूर्वदेश के महातीर्थों की यात्रा हेतु साधु मुनिराजों का आगमन भी होता रहता था। सं० १८६७-६८ में पाश्व॑चद्धगच्छीय श्रीपृज्य श्री हर्पचन्द्र सूरि ने कलकत्ता में रहकर मन्दिर जी व दादावाड़ी की. प्रमाणाभाव में . विशेष प्रतिष्ठाएं करवायी थीं | सं० १६७१ में खरतरगच्छ के श्री जिनहर्षसूरि ने मूल शान्तिनाथ जिनारूय की ' प्रतिष्ठा करवायी । इसके वाद भी निरन्तर विभिन्‍न गच्छों के गुरु- जनों का विचरण एवं चातुर्मास होता ही रहता है । भगवान शान्तिनाथ कलकत्ता महानगरी की प्राचीनतम श्री जेन ड्वेताम्बर.




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