प्राचीन भारत में दान की अवधारणा महाकाव्यों के विशेष संदर्भ में | Prachin Bharat Me Dan Ki Avdharana Mahakavyon Ke Vishesh Sandarbh Me

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Book Image : प्राचीन भारत में दान की अवधारणा महाकाव्यों के विशेष संदर्भ में - Prachin Bharat Me Dan Ki Avdharana Mahakavyon Ke Vishesh Sandarbh Me

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about सन्तोष कुमार तिवारी - Santosh Kumar Tivari

Add Infomation AboutSantosh Kumar Tivari

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
|; ¢ परानुभूत ज्ञान उपलब्ध कराती है। इस प्रकार इन दोनों ही विधियों से जो ज्ञान हमें प्राप्त होता है वह हमें यथार्थ का बोध कराता है। इसके अतिरिक्त वह सत्‌-असत्‌, उचित और अनुचित का भी बोध कराता है। इस प्रकार यह ज्ञान मानव को विविध विषयों का बोध कराकर उचित आदर्शो की स्थापना करता और व्यक्तित्व का विकास करता है। धर्म का उदय एवं विकास- व्यक्ति जब 9०० वर्ष का जीवन जीता है तथा लोक व्यवहार और सम्पर्क के माध्यम से ज्ञान अर्जित करता है तब उसे ऐसा प्रतीत होता है कि विश्व के समस्त जीवों में एक जैसी आत्मा निवास करती है। सभी जीव सुख-दुख की अनुभूति एक समान करते है) इससे यह सिद्ध होता हे कि समस्त प्राणियों में एक रहस्यमयी आध्यात्मिक सम्बन्ध है। विश्व में ऐसी कोई विशिष्ट शक्ति है जो सम्पूर्ण विश्व का सृजन, अंकुरण, विकास पूर्णविकास, स्थायित्व एवं विनाश करती है। यह शक्ति सभी धर्मों डारा परमपिता परमेश्वर अथवा सृष्टिधात्री महाशक्ति कं रूप में स्वीकार की गई है। यह शक्ति दृश्य और अदृश्य दोनों रूपों में न, उपासित हे। इन्टीं सिद्धान्ती के जाधार पर विविध देवताओं की परिकल्पना भी की गई । इसी धार्मिक सिद्धान्त ने सत्य, अहिंसा, प्रेम, सदाचार ओर सद्व्यवहार को जन्म दिया, यद्यपि धर्मशास्त्रकारों ने धर्म का कोई स्पष्ट अर्थ नहीं बतलाया, उनके अनुसार धर्म का अर्थ धारण करना, आलम्बन देना और पालन करना है। ऋग्वेद की कुछ ऋचाओं में इसका प्रयोग हुआ हे, तद्नुसार- “आ प्रा रजांसि दिव्यानि पार्थिवा श्लोकं देवः कृणुते स्वाय धर्मणे ।< हु महत्वपूर्ण अर्थ मिलता है, जिसके अनुसार धर्म की तीन शाखायें मानी गई हैं (१) यज्ञ, अध्ययन एवं दान अर्थात्‌ गृहस्थ धर्म (२) तपस्या अर्थात्‌ तापस धर्म तथा (३) ब्रह्मचारित्व अर्थात्‌ आचार्य के गुह् छान्दोग्योपनिषद ^ मे धर्म का एक मं अन्त तक्‌ रहना । सुप्रसिद्ध अंग्रेज विद्वान सर जेम्स फ्रेजर ने धर्म को निम्न रूप में परिभाषित किया है- *“[3५/1610 01 ..................... | 17091915110 ৪ 01001021101 017 ०01019॥01 010100৬4615 38109110110 (11811 ৬/7101 2176 06816५80 {0 418 210 0017001 076 ০081529011728100172 2170 01 07910172171 16. धर्म का विस्तृत अध्ययन करने कं पश्चातु हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि धर्म में आस्था रखने वाला व्यवित्त एक परमशक्ति पर विश्वास करता है तथा वह सदैव उससे भयभीत रहता ই | समस्त লাললা उसके कर्म अधोगति और उच्चगति के आधार पर मूल्यांकित होते हैं, जिसके आधार पर वह स्वर्ग अथवा नरकगामी होता है | वह जीवन को भोग की वस्तु न मानकर उसे परिवर्तनशील और नश्वर मानता है, इसलिये वह माया, ममता, मोह आदि से दूर रहता है। वह सदैव तृष्णा, अहंकार, क्रोध, मद, ममता ओर मोह से अलग. रहकर सभी के प्रति समभाव रखता है तथा स्वतः कष्ट अपनी जैसी आत्मा की अनुभूति करके वह इस प्रकार कं कर्मो को जन्म देता है जिससे उसकी यश वृद्धि होती है, उसके कर्म की प्रतिक्रिया उसके अनुकूल होती है।




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now