शकुन्तला उपाख्यान | Shakuntla Upaakhyan

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Shakuntla Upaakhyan by कालिदास - Kalidasनिवाज कवि -Nivas Kavi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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शकुन्तला | १३ | बेव्धौ जाय मधुर च्रधरन पर ५. ससकि हाथ লন हो दरयो । उड़ि अर्ति गयो फ्रेरि फिरि आयो ४ “ शुकुन्तला ह्वां ते टरि आई । पोषे भ्रमर लगो टुखदाई ॥ शकुन्तला पुनि जित जित डोले। तिति तित स्बमर गुंंजरत बोले ॥ राजा निरखत सन अनुरद्यो । ` मन मन मधघुकरसो भ्रस्कद्यो॥ ४१॥ घनाक्षरी छन्द । पा ओटठन सम्रोप आन गंंजतओ सड़रात मानो बतकदो को | । लगावत लगन हो | चंचल दरमनि को पलनि करो छोमित | | ं्श्रो फिरश्ानि कर कपोल फलकनद्ौ+ प्यारो सस- | । कनि मद्रावति करति तुम उड़ि उड़ि बैठत पियत अधरन | हो। दुरि दुरि टूरि हो ते देखत खड रहत मनो हम कौने | काज মন্দ ন্তল धन्य हो ॥ ४५॥ चौपाई । शकुन्तला केतो कछ कर। . खँग तें सधुप न टाखों टरे # . बन में सघकर बहुत सलाद ॥ शकुन्तला यह टेर सुनाई ४




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