महाजन वंश मुक्तावली | Mahajan Vansh Muktawali

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Mahajan Vansh Muktawali by आचार्य श्री रामलाल जी - Achary Shri Ramlal Ji

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about आचार्य श्री रामलाल जी - Achary Shri Ramlal Ji

Add Infomation AboutAchary Shri Ramlal Ji

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
प्रस्तावना. -१५ - “ठखनेऊके अजायब ग्रहम, अंगरेज सरकारने रखा हं, इस प्रकार जिन जिन মুলিশিভাতা অলপম্দন্দী গান্দীনলা; अन्य दरनि्यकि हटि गोचर “विश्वास करने योग्य हो रही ह, क्यों कि वहुतसे जिनवर्म्मके द्वेपी जिन धर्मकों লিচীন प्राचीन-नहीं मानते थे, लेकिन जिन मंदिरोके प्राचीन, प्राहमविसे उनको भी जिनवार्म प्राचीन हैं ऐसा मानना पडा ह इस भरतश्षेत्रमकेश्यक मत मतातर “ प्रथम होगयें लेकिन उनांका नाम निशान तक अन्य दीनी नहीं जानत, यथा श्वेतावर भगवती भूमे गोसालेका कथन ह, ~ केकिन्‌ दिगांवर जेनी नामधारकोंके पुराणोंमें उसका नामाचिन्ह पर्यत भी नहीं ह, श्वेतांवरोंका मंथ छेख, प्रथम आर्यावर्रम रहनेवाले जो बोद्धोंने गोंसालेकों वीरप्र- भम्नंग दृष्सि देखा था, वे बोद्धमंथम लिखत हूं, निर्मंथ महावरिका एक शिष्य गोंसाल कमी था इस न्याय श्वतांवरोंका यंथ लेख सत्यप्रतीतिं करने योग्य ह गोंशालेके मतकों माननेवालें उसझमय ११ लश्न श्रीमत गहस्थ थ, ओर महावीर स्वामीके यथार्थ धर्म्मीनुयायी सोराजा और एकछक्ष गुणसठ सहतस्रत्रतथारी गृहस्थ श्रीमंत लिखा ह, लिखनेका तात्यथ ऐसा ह, डग्यारेंलाखके मताध्यक्षका नामाचिन्ह तक आर्यावर्तम नहीं रहा, ओर जेनतीर्थकरोंकी प्रचीनता ओर होना अन्य दर्श- नियम क्‍्यों-कर प्रगट होंगई, सम्यक्त्ववारी श्रावकांके जिनमंदिर करानेके प्रभाव॑से इसप्रकार गोशाढे आदिपूर्व् मतांतरियोंके गृहस्थ मंदिरमूर्ति बनवाते तो, इससमय उनोका होना अन्य ठर्शनी भी स्वीकारते, ऋषभदेव के शमय पर्यतकी भी मर्तिया अग्रावाधि मिलती है, क्योंकि निर्विवाद सिद्ध है, जनगृहस्थ असंक्षकाल्स जिनम- विर, जिनमूर्ति कराते चले आये, [ प्रष्ण | जिनमंदिर जिनमूर्ति, पुनःउसकी पूर्जाम जल, पुष्प, अभि, फठादि आरोपण करना, हिंसा हे, ओर हिंसाका कृत्य जिनघर्मी श्रावक कैति करे, [ उत्तर ] हैं भव्य यह तो तुमभी बुद्धिस निधार कर বদ সী) লিলা तीर्यं कर्के भक्त श्रद्वानवे विना जिनर्मदिर कोन करव्रेणा आर वेहा जिनमेदिर कराते चले आये है, आर तीक्ररके मक्त श्रद्धावेतका मिथ्यात्वी कहे, वह मिथ्यात्वी जिनान्ञाका विराधक होता हं तुम विचार ठो ती करकी श्रद्धा भक्ति मिथ्यालीकों केसे हो सके, जिनमंदिरोंके करानेवालें निश्चय सम्यक्लबंत सिद्ध होते हैं, मिथ्यारी वोही कहाता हे जो तीर्थकरसें वे मुख हो, अब रही थे कुतक की, पूर्वोक्त विधिम हिंसा है, सो स्वरूपहिसा यत्किंचित्‌ एकद्री जीवो दिती दै जिन्म॑दिर) जिनप्रतिमा, कराने, वा पूजामि, तवतो तुमटोकोने उपवास, वेला, तेखा .अगई, पक्ष, मासक्षमणादे तपत्याकों भी त्यागदेना चाहिये, इस मनुष्य देहधारीके इरीरमे, वेदी, त्री, तसजीव भी .असंक्र हे ,चूराणिय, +




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now