स्वराज्य दर्शन [राजनीति] | Svarajya Darshan [ Rajneeti ]

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Book Image : स्वराज्य दर्शन [राजनीति] - Svarajya Darshan [ Rajneeti ]

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

आर० डी० पटेल - R. D. Patel

No Information available about आर० डी० पटेल - R. D. Patel

Add Infomation AboutR. D. Patel

भोगीलाल गाँधी - Bhogilal Gandhi

No Information available about भोगीलाल गाँधी - Bhogilal Gandhi

Add Infomation AboutBhogilal Gandhi

श्री प्रकाश एन० शाह - Shri Prakash N. Shaah

No Information available about श्री प्रकाश एन० शाह - Shri Prakash N. Shaah

Add Infomation AboutShri Prakash N. Shaah

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
८१ राजाओंका राजनी तिमें प्रवेश उनके स्वभाव और संस्कारसे उत्पन्न वस्तु थी। उद्दाम शक्तियोंके साथ उनका जुड़ना लूगमग असंभव-स्रा था। जिस लोकसे वे निकले थे, जिसमें उनका मनोविकास हुआ था और उनके आसपास जो वर्तुल था; वे सव उनको स्वतंतरपार्टीका स्वामाविक प्रत्याशी बना सकते हैं, समाजवाद या उद्दामवाद লক্ষ হাহ হী উ जा सकें। राजाओकि वािक जेव-ख्चको लेकर कहीं-कहीं कठोर शब्दोंमें अलोचना की गयी है। इस विपयके अनुवन्ध न तो अवाधित हैं न अन्तिम ही। उन्हें एक राजवीतिक व्यवस्था ही! माना जा सकता है। यह राजनीतिक राष्ट्रीय नीतिका ही परिणाम है। राष्ट्रनीति परिस्थितिके अनुसार बदली भी जा सकती है। इस दृष्टिसे यह राजकीय व्यवस्था सरकार और राजागण समझदारीसे बदल भी सकते हैं। इस तथ्यको स्वीकार करनेके बाद समझदारी इसीमें है कि पूज्य सरदार साहवका अनुकरण कर और राजाओंको विद्वासमें ले उचित ढंगसे इस प्रकरणका अन्त किया जाय। इसी प्रकार भाषावार प्रान्त-रचनाका सवाल भी थोड़ा-सा दूसरे पहलू पर विचार चाहता है। आज भी विश्वमें अमेरिका और स्विट्‌जरलडको अगर अपवाद रूप मान ठे तो विशेषतः समी स्थानों पर भापावार राज्य-रचना देखनेकों मिलती है। रूसको छोड़कर शेप यूरोप जैसे भारतवपंमें एक भाषा संभव नही है। प्रजाको स्व॒राज्यका अनुमव कराना हो तो यह अनिवायं था कि उसका सभी कामकाज उसकी मापामें ही होना चाहिए। प्रइन केवल इतना है कि इस प्राकृतिक माँगको किस रूपमें पूरा किया जाय कि जिससे एकताकों आँचन आए। यह भी अनुभव नहीं हो रहा है कि प्रजामें एकतावी भूज कम है। इस कमीका अनुमव न तो चीनके १९६२के आक्रमणके समय हुआ और ने पाकिस्तानके १९६५बेः आक्रमणके समय हुजा 1 परन्तु कहीं श्ंखलाकी कड़ियोंमें कमी अवश्य रह गईहै। वात इतनौदहैकि उमे कंते पूरा किया जाय, जिससे लोगोंको स्वराज्यका अनुमव मीहौ और साथ-साथ लोगोंके हृदयमें पड़ी हुई एकताका अनुमव और छाम राष्ट्रकों मी मिलता रहे। राप्ट्ररी एकताकों दृढ बनानेके लिए मात्र प्रजाकी एकता पर आधार रखना चाहिए। प्रजाकी उचित आशज्या-आकांक्षाकी उपेक्षा करनेसे या उसे हेय मान लेनेसे प्रजाकों संतोप मिलनेवाल नहीं है। प्रजाकी आय्ा-आकांक्षाका आऔचित्य भी प्रजाको ही त्य करना है। उसमें अकारण अश्रद्धा रखनेसे भी उसेन्याय नदीं मिदेगा । विपमता ओर अन्यायकौ उपेक्षा करनेसे संदोप मिलने वाटा नहीं है । अव यह्‌ विना माने काम नही चलेगा कि पुनर्रचना का प्रयोग पुरा करनेमें दीरषदृष्टि, कुशलता, उदारता आदि- की कमी रही है। परन्तु जितने समयमें यह सव कुछ हो सका है और जितनी मात्रामें यह सफल हुआ है, उसकी ओरसे भी आँखें बन्द नहीं की जा सकतो। राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, राज्यपाल आदिके महत्ववूर्ण पदोंकी जिम्मेदारियों और उनके कर्तव्यों पर विस्तारसे चर्चा की गई है तया मूचनाओंकी दृष्टिसे पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। प्रधानमंत्री, मंत्रिमण्डल और संसदका प्रशासनिक चित्र भी बहुत अच्छे ढंगसे प्रस्तुत किया गया है। मुझे रूगता है कि राष्ट्रपति-विपयक विचार जिस ढंगसे किया गया है, उस तरहसे प्रधानमंत्री के चुवावके विषयमे नही करिया गया । अगर उसमें अलग-अलग प्रवाहोका विचार दिया गया होता तो यह अधिक उपयोगी होता 1 वास्तवमें इतने महत्वपूर्णं पदको लेकर विचार करते समय समी शतप्रति- शत व्यक्ति व्यक्तिगत रागहे पसे प्रेरित होकर प्रधानमंत्री पदके लिए दलके नेताकों पसंद नहीं करते। मारतम जो मी प्रधानमंत्री होगा, उसे कितने ही तत्त्वोंको लेकर चलना होगा। यह तय करनेका आमुख : १३




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now