जीव जगत | Jeev Jagat
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
21 MB
कुल पष्ठ :
854
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)गे निने हवा भरकर या सिकारूबार थे आज ही पानी में ऊपर-तीचे आाती-जाती
। इन्हों मछलियों से हमारी লালন की कड़ी-हर्टीवाली था दृढ्मन्थि-मछलियां
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विकसित हुई हैं जिनकी छगसग बीस हजार जातियां हमारे मोठ पानी के অহনা
और मम्रों में फैछी हुई हे ।
मछलियों का काल, जैसा ऊपर बता आया हूँ, लगभग पांच करोड़ वर्षो का माना
जाता है। इसके प्रथम चरण में ही खब्की पर वनस्पति का विकास होना भ्रारम्म
हो गया था। स्वर पर के ये प्रारम्भिक पौत्रे विना पत्तियों और जड़ों के थे ओर तने
धीरे-धीरे पथ्ची पर फल रहे थे। कुछ समय बाद इनमें नी विकास के चिह्न दिखाई
पड़ने छगे और मछलियों का युग समाप्त होते-होते इनकी ऊँचाई ४०-५० फुट तक
पहुँच गयी जिन्होंने धीरे-बीरे फैलकर पृथ्वी का काफी भाग घेर लिया ।
खुश्की पर वानस्वतिक भोजन की इतनी प्रचुरता देखकर पानी के जीव धीरे-
धीरे सूक्षे की ओर बढ़ने ऊूगे। उनमें से जिन्होंने पहले-पहल स्थल पर आने का
साहस किया उन्हें हम उभयचर (719 900७) के नाम से पुकारतें हैं। उसमयचर,
जैसा उनके नाम से स्पष्ट है, जल और स्थल दांनों स्थानों पर रहने योग्य जीव थे।
उतका प्रारस्मिक जीवन तो पानी में बीतता था छेकिन अपने झरीर में फंफड़े का
विकास करने के कारण वे खुली हवा में साँस लेनेवाले जीव थे। ये जीव पानी में भी
काफी देर तक रह लेते थे और तेरने में तो बहुत उस्ताद थे। इन्होंने अपने पैरों का
बहुत अविक विकास किया जिससे ये खुश्की पर भी आसानी से चलने-फिरने लगे
और इन्हीं पैरों की मदद से इन्हें संकटकाल आने पर एक जलाशय के सूखने पर दूसरे
जलाशव में जाने को सहुल्यित हो गयी । इन उभयचरों ने अपने कान का भी अद्भुत
विकास किया जिससे उन्हें दूर स्रे ही शत्रुओं की आहट मिल जाती थी और उनसे वे
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अपनी रक्षा करने में समथं हो जाते ४ ।
भोजन की अधिकता मौर छात्रुओं की कमी के कारण इन उभयचरों से अपना
अधिक समय स्थलू पर ही विताना उचित समझा लेकिन उन्हें अण्डे देने के लिए पानी
की ही शरण छेनी पड़ती थी, क्योंकि उनके नरम अण्डों को नमी कायम रखने के लिए
जलू का सहारा आवश्यक था। वे साँस लेने में बहुत कुशल नहीं थे और हवा को अपने
मुश्न के निचले हिस्से. से उसी तरह भीतर की ओर उेल देते थे जैसे मछलियाँ पानी को
गलफड़ों के ऊपर তত देती हैं । इनकी रक्तवाहिनी शिराएँ भी इतनी विकसित नहीं
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