मूल में भूल | Mul Me Bhul

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Mul Me Bhul by बनारसी दास - Banarasi Das

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[१४] मूर भे भूढ चाहिये, किन्तु ऐसा नहीं होता | इसी प्रकार शिष्य के आत्मा की पर्याथ बदलकर मेक्ष देता है। कहीं गुरुडी आत्मा बदरू- कर शिष्यकी मेक्षदशा के रूपमें नहीं हुआ जाता। शिष्य का आत्मा अपना उपादान है, वह स्वय' समझकर मुक्त द्वाता हैं कितु युष के आत्मा मर शिष्यकी कई अवस्था नहीं हाती । सपादान-(उप-+-आदान) उप का अर्थः है समीर ओर भादान का अथ है प्रहण हाना। जिक्र पदाथ के समीप में से कार्या का ग्रहण है। वह शपादान है ओर उख समया परपदार्थ' के अनुकूछ उपस्थिति हे! से निमित्त हैँ ॥२॥ अब शिष्य प्रश्न पूछता है कि--( कोई बिरछा जीव ही तत्त्व के प्रइनां के पूछने के लिये खड़ा रहता है, जिसे प्यास छगी द्वाती है वही पानीकी परब के पास जाकर खड़ा हेता है, इसी प्रकार जिसे आत्मस्वरूप के समञ्चन की प्यास छगी है ओर उस ओर की जिसे आंतरिक आकांक्षा है वही जीव सत्समागम से पठता है) हे प्रमु! आप उपादान किसे कहते हैं. जोर निमित्त किसे कहते हैं और वे उपादाम तथा निमित्त एक स्थानपर कब से एकत्रित हुये ह देनं का अयोग क्षसे टै! देसे जिज्ञासु शिष्य के प्रन का उत्तर देते हुये कहते उपादान निञ्र शक्ति हे जियके मूल स्वभाव ! है निभित्त पमेग ते वन्यो अनादि बनाव ॥३॥




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