सद्गुरू - वाणी | Sadguru - Vani
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
20 MB
कुल पष्ठ :
274
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)१०-४-७३ ] ह ` ८ सद्गुरु-वारी ) | ই
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परंतु अहिंसा परम धर्म है, “अद्विखा परमोधमः”
( महाभारत अनुशासन पर्व ११४॥२५ ) घ्मं का
, तात्पर्यं श्रा्दिसा में है। धमे को मानने वातत
सभी लोग-अहिंसा और त्याग की प्रशंसा करते
हैं। जो घमं मनुष्य की दृत्तियों को अहिंसा,
त्याग तप निव्ुत्ति और संयम की ओर ले जाता
है। बही याथाथ धर्म है। जिस धर्म में इन
बातों की कमी है वह धर्म अधूरा है। माँस
भक्षण करने वाले अहिंसा धर्म का हनन करते
ঈ। धर्म का हनन ही पाप है ।
कोई यह कटे कि दम स्वयं जानवर कोन
मारते हैं और न तो मर वाते हैं, दूसरों के द्वारा
मारे हुए पशु पत्तियों का मांस खरीदकर खाते हैं'
इसलिये हम प्राणी हिंसा के पापी क्यो मने
जांय। इसका उत्तर स्पष्ट है कि हिंसा मांसाहा-
| रियों के लिये ही की जाती है। फसाई खाने
मांस खाने वालों के लिये ही बने द! यदि |
मांसाहररी मांस खाना छोड़ द्। तो प्राखि चध
कोई किस लिये करे ? फिर यह भी समझ लेना
चाहिये कि केबल अपने हाथों से मारने क नाम
ही हिसा नदीं है, महर्षि पलंजलि ने अहिंसा के
मुख्यतया २७ भेद बताभे हैं जेले
` १ वितकं हिसादया कृत कारितालुमोदिना
लोभ ऋध मोह पूर्ब का सझुदुमयादिमात्रा
इुःखाजश्ानानंत फला इति पत्ति पत्त भावनम्-
आर्थात्-स्वयम् हिंसा करना, दूसरे से
करवाना और उसका समर्थन करना यह ३
प्कर का हिंसा लोभ क्रोधच, और अज्ञान के
फारण होने से तीन >< तीन नो सेद हुये-यह नी
भकार की दिसा सुद़॒-मचय-और अधिक मात्रा से
होने से नौ ८ ३८०२७ प्रकार को हो जाती है ।
इसी तरह से मिथ्या भाषणादि का भेद भी
खम सेना चाहिये यह हिखोदि दोष कभीन
मिटने वाले डुःख और अज्ञानरूप फल को देने
वाले हैं ऐसा विचार काना प्रति पक्ष भावना
दहै यही सचाइस प्रकार की हिसा शरीर वासी,
मन-से होनेक्े कारण ८१ भेदों वाली बन जातीहै
इसलिये स्वयम् न मार कर दूसरों ॐ दारा मार
कर खाने वाला प्राणी हिंखा का भागी है। मनु
महाराज ने कहा दे किः--अखुसमंना विशिष्यता,
निहंता-क्रय विक्रयी, सस्कतां चोपहर्नाच खाद
कश्चेनि घातकाः सल्ाही आज्ञा देने वाला चंग
काटने वाला मारने वाला मांस खरीदने वाला
बेचने वाला पकाने वाला परोसने वाला ओर
खाने वाला यह सभी घातक कहलाते हैं ।
इसी प्रकार महाभारत में भी कहा है ।
জল ক্ষতি কী हंति खाद काश्चोप भोगना ।
घानको बच बंधास्य निन्येशा।त्रे विधो बदा ॥
आहर्नात्र रुमंतात विशिषना क्रम विक्रय,
संस्कति चोपसुक्तात्र खाद् का सवेर्पैवने ॥
( ११५।४०॥४९ महाभारत अचुशासन पवे )
-मांख खरीदने वाला घनसे, खानेवाला उपयोग
से, मारने वाला मारकर बांधकर प्राण की हिंसा
करता है, इस प्रकार. तीन तरह से बध होता है'
ज्ञो मनुष्य मांस लाता है | जो मंगाता दे पशु के
रद्ध कार्ता है और खरीदता है जो बेचता है ।
जो पकाता हैं और जो खाता डे यदह सभी मांस
खनि वान्ते घात की हैं अतएव मांस भक्तण धमं
का हनन करने बाला होने क्ते कार्ण सवथा
महा पाप है, धर्म पालने वाले के लिये दिखा
का त्याग प्रथम सीढ़ी है जिसके हृदयमें अदिसा
का भाव नहीं है उसके हृदय में घमे का भाव '
कहाँ दे ? भीष्मपितामह राजा युधिष्टिर से कहा
है कि--मांस भक्तीयते स्वभक्तीयते यस्मान्
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