महात्मा शाहन्शाह | Mahatma Shahanshah

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Mahatma Shahanshah by भुवनेश्वरी दयाल - Bhuvaneshvari Dayal

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( २ ) यत्र तत्र सुना दी करते हँ । देवी तथा दानी विचासें के भिश्रण से प्लावित एक ओर सृष्टि है जिसे हम मानवी सृष्टि कहते हैं । मानवी सृष्टि का पूर्ण रूपेण हम लोगों से संबन्ध है | वास्तव में অন ही वह स्तर है जौँ से कोई जीव उध्वं अथवा अधोगति की रोर जाता है । समयं समय पर केवल दैवी ही नदीं वरन्‌ आसुरी सम्पत्ति ने भी उन्नति की है| दोनों के रहन सहन तथा विचारो में किसी प्रकार का मेल सम्भव ही नहीं है। आरम्भ काल से दोनों दलों ने अपना अपना एक गुरू निधोरित किया और उसकी संरतक्षता में क्राय करते रहे । यदि एक पक्ष को अमृत पीने को मिला तो दूसरे दल में संजीवनी शक्ति का ज्ञान था इसी के आधार पर दोनों समुदाय परस्पर एक दूसरे के प्रति लोहा लिया करते थे । आसुरी सम्पत्ति लोक हित के लिये हानिकर है उससे सृष्टि के सृजन, पालन बाधा पड़ती है। ऐसा समझ कर ही उस जगन्नियन्ता ने समय समय पर अवतार लेकर आसुरी सम्पत्ति को नीचा दिखा कर उन्हें परास्त . करके सृष्टि के दोनों पल्लों को समान रक्खा है। भगवान के दस अवतारों का क्रम अत्यंत वेज्ञानिक ढंग से है । नू्सिंह अवतार में पशु से मनुष्य की ओर विकास की प्रवृत्ति जान पड़ती है।और आगे चल कर फ़िर भगवान बुद्ध, राम तथा कृष्ण के अवतार हुए है | प्रत्येक अवतार के हेतु से संबन्धित कोई न कोई कथा कही जाती है । बेकुण्ठ के दवारपाल जय और विजय को सनकादि ऋषियों का श्राप, इसके कारण उनका हिणेयाक्ष, हिरण्यकश्यप, शिशु पाल, 'तबक्र, तथा रावण कुम्मकरण आदि रूपों में जन्म लेना कहा जाता है। इन बड़े बड़े राक्षत्र रूप धारी द्वार पालों को इन योनियों से मुक्ति दिलाने के लिये भी भगवान का जन्म हुआ, ऐसा कहा जाता है । इन्हीं के सहारे हमारे देश में आदि काल के महान्‌




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