देव सुधा | Dev Sudha

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Dev Sudha by गणेश बिहारी मिश्र - Ganesh Bihari Mishra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ देव-सुधा प्रेम-पियूख-पयोधि मैं मिल्त विमल निरदुद। न्यारो होत न एड हे ज्यों जल ते जल-बुंद ।। ३६ |। पूरन पुन्य उदोत जेह्दि प्र म-पयुखक्-पयोधि{ । निकसी निरमल चंद्रिका, विकसी सब जग सोधि ॥ २७॥ प्र सवती पदुमिनि हरे मधुकर-उर की प्यास्त। बूड़ मरे अल धूलि में कतक्ि पद-बिन्यास॥ रे८।॥ अम रूप रस बस करे तिय में प्रेम अनूप । यमकी-सी तिय प्रेम बिनु मनु आस्तीबिष-रूप ॥ ३६ ॥ भ्रम केलह मध्या कलुष प्रौढा मानस गबे। रोख दोख सों मिलत नहिं प्रेम पोष सुख पर्व॥ ४० ॥ तब ही लों सिंगार रसु, जब लंगि द्‌पति-प्रंमई। सन्लिन होत रस प्रोम बिन अयो कलई कों देम ॥ ४१॥ यह ॒भिचार प्रमीन फो विषयी जनको नोँहि। विषय विकाने जनन की प्रेम ভিঅব+ न डाहि ॥ ४२॥ ऐसे ही बन प्रेम रस नीरस रस सिगार । भेम बिना सिंगार हूं सकता रसायन सार »॥ ४३॥ ® असरत । 7 3 मिड নিল त समुद्र + सपु | $ कवि दंपति-प्रेम से परिपूर्ण रस को ही £गार-रस मानता है । - + छुवत । श गार»विना प्रेम के नीरस है, किंतु विना श्टगार का भी भरम सरस है




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