पिच्छि - कमंडलु | Pichchhikamandalu

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ই को प्रवाहित करने लगते है जिनमें अवगाहन कर भक्त भक्ति के अनिर्वाच्य रस को पा लेता है। भक्ति से ही मुक्ति है और भुक्ति भी भवित से ही है। भुक्ति तथा मुक्ति के लिए जिनचरणारविंद का मधुलिह (अ्रमर) होना अपरिहार्य है 1 भगवान्‌ जिनेद्ध ने अपने समस्त दोषों को शान्त कर दिया है इसलिए उन्हे आत्म- शान्ति प्राप्त है और सिद्ध है कि जिसे जो वस्तु प्राप्त है उसमें से वह दूसरों को भी वॉट सकता है और प्रभु शरण में श्राए हुओ को शान्ति प्रदान करते है* । जो श्रद्धा तथा विश्वास के युगलनेत्रों से भगवान्‌ की भक्ति (शरण) ग्रहण करता है उसे निश्चय परमकृतार्थता मिलती है अन्यथा इन वाद्य नेत्रेन्द्रियमात्र से उस थ्रद्धामृति का दर्शन होना कठिन है। भगवान्‌ की स्तुति करते हुए एकी- भाव प्राप्त करना भक्त का ध्येय होना चाहिए। 'मम परमविशुद्धि:' जैसे उद्गार उसके समक्ष निकलने चाहिए। यदि भगवान्‌ से पुत्र-पौत्र, धन-सम्पदा और क्षुद्र लौकिक अ्रपदार्थो की याचना की गई तो यह केसर के खेत मे जाकर कुश ग्रहण करने के समान होगा । ये लौकिक वैभव तो मुक्ति के लिए कृत-करिष्यमाण प्रयत्नो की तुलना मे कुछ नहीं है । श्रतः याचना के भाव उठे तो उन प्रचित सम्पदाओओं के धनी से मुवितलक्ष्मी की याचना करना उचित है कि লা मुक्तियाचना से भी क्या? वह्‌ तो भक्ति का शुल्क है श्रर्थात्‌ जहाँ शुल्क रूप मे भक्ति भेंठ की গীত मुवितत प्राप्त हुई । ्रतः परिणामविशुद्धि के लिए प्रथम भक्ति की याचना ही मुख्य है । भला, जिनेन््रचरणकमलों का मधुप क्या जन्म-जरा-मृत्युवाधामग्रस्त श्रधमता को पाता है? श्रथवा हिमालय के दुरारोहं शिखर पर खडा होकर कोई मैदानो के मृटीभर कंकर-पत्थर चाहता ই? जिनेन्द्रविम्व को देखनेमात्र से श्रणाश्वत विपयादि परिग्रहु-मुह्यमान सुखो से उसे विरक्ति हो जाती है श्रौर वह केवलजानरूप अ्रग्ति में अपने पुण्यों की आहुति (विसर्जन) देने के लिए झाकुल हो उठता है? । देव के समक्ष अपने पाप दग्ध करने के लिए तो अनेक आते है परन्तु पुण्य भी वन्धपरिणामी है, एेसा मानकर उनका भी पुष्पांजलिवत्‌ विसर्जन करनेवाले कितने वीतराग है, यह अ्रनुभूति से ही जाना जा सकता है। 'विपापहार' १. “स्रदोपशान्त्या विहितात्मश्षान्ति. शन्तविघाता भरणं गतानाम्‌ । भूयाद्‌ भववने नयोपथान्त्यै शान्तिजियों मे भगवान्‌ शरण्य ॥' -जान्तिजिनस्तोत्र, ८० २. श्ीपतिर्भेगवान्‌ पुष्याद्‌ सक्तानां वः समीहितम्‌ । यद्भक्तिः गुल्कताकिति गृक्तिक्रन्याकरग्रहे 1 -क्षचन्रूडामरि, १।१ ই. श्रहेतुरा पृरपोत्तम पावनानि वस्नुन्यनूनमखिलान्ययमेक एव । अरि्मिन्‌ ज्वयाद्रिमलकेवलवोधवक्लौ पुण्य समग्रमहमेकमना जुहोमि ॥7 नित्यपूजा, १२




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