मानसरोवर भाग - 5 | Manasarovar Bhag - 5

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Manasarovar Bhag - 5 by श्री प्रेमचन्द जी - Shri Premchand Ji

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प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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निमन्त्रण পাশপাশি হাল शाची, লীহান হাজী, উহীহাল হাজী, অনানীযান হাজী দুলাল হী, मोटेराम शाल्री आदि जब इतने आदमी अपने घर ही में हैं, तब बाहर कौन आह्मणों को खोजने जाय । सोना--और सातवाँ कौन है ? मोटे०--बुद्धि को दौड़ाओ । सोना--एक पत्तर धर ठेते आना । मोटे०--फिर वही बात कही जिसमें बदनामी हो। छि-छि, पत्तल धर लाऊँ । उस पत्तल में वह स्वाद कहाँ, जो यजमान के घर बेठकर भोजन करने मे है । सुनो, सतव महाशय दँ - पण्डित सोनाराम शाली । सोना--चलो, द्ल्लगी करते हो । भला, मँ केसे जमी मोटे ०--ऐसे ही कठिन अवसरो पर तो विद्या की आवश्यकता पढ़ती है । विद्वान्‌ आदमी अवमर को अपना सेवक बना लेता है, मूर्ख अपने भाग्य को रोता है । सोना देवी और सोनाराम शास्त्री में क्या अन्तर है, जानती हो» केवल परिधान का । परिधान का अथ समम्ती हो ? परिधान 'पहनाव' को कहते हैं । इसी জাতী को मेरी तरह बाँध लो, मेरी मिरज़ई पहन छो, ऊपर से चादर ओढ लो। पगणडढ़ी में, वाँव दूँगा। फिर कौन पहचान सकता है ? सोना ने हँसकर कहा--मुझे तो लाज लगेगी । मोटे०--तुम्हें करना ही क्या है ? बातें तो हम करेंगे । सोना ने सन-ही-मन आनेवाले पदार्थों का आनन्द्‌ लेकर कहा--बढ़ा: मज़ा होगा | मोटे०--बस, अब विलम्ब न करो। तेयारी करो, चलो । सोना - कितनी फकी बना छे ? गट ०--यह में नहीं जानता । बस, यही आदश सामने रखो कि अधिक-से- अधिक लाभ हो । सदसा सोना देवी को एक बात याद्‌ आ गड । बोली--अच्छा, इन बिछुओं फो क्या कष्टंमी ए मोटेराम ने योरी चढाकर कडा ~ इन्हें उठाकर रख देना, और क्या करोगो १ सोना--दां जी, कयो नदीं ! उतारकर रख क्‍यों न दँगी।




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