पशुयज्ञ - मीमांसा | Pashuyagya - Meemansa

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यज्ञ के पयौयवाचक शंन्द्‌ ७ মাসি छभिप्राय यह है कि देव घी के पीने वाले हैं । इसीलिये) वैदिक सिद्धान्त मेँ धृति पर दी अधिक बल दिया गया है' 1 यदि यज्ञ में मांसाहुति वेद को अभीष्ट होती #तो चूँकि यज्ञ, देव- दों ॐ किये विस्टत क्रिया जाता है, (लव देवों के भोजन में मांस का गिनाना भी बेद के लिये आवश्यक होता। म़्ैँकि वेद में देवताओं के भोजन में मांस कहीं भी गिनाया नहीं गया, इससे प्रतीत होता है कि वेद को यज्ञ में मांसाहुति अभीए्ट नहीं । वेदों में मांस और रुधिर आदि अन्न, राक्षसों के भोज्य पदार्थों में तो अवश्य गिनाये हैं । वेदौ मे रक्तपा, मांसादाः, पिशाचाः, क्रव्यादाः--आदि नाम रक्षसं ॐ लिये पित दै । रक्पाश्=रक्त श्रथौत्‌ खन क पीने बाले । मांसादाः=मांस कै खाने वाज्ञे ¦ पिशाचाः=पिश अथात्‌ शरीर के अवयवो के खाने चाले ! क्र्यादाऽ=हिसा से प्रप्त मांस के खाने बाले । यतः देवताता पद्‌ यह सूचित कर रहा दैः कि यज्ञ देवताओं के लिये मिस्तव होता है न जि राक्तसों के लिये, श्रतः यज्ञ में देवताच्मों ही भोजन की आहुति होनी चाहिये नाके राक्षसों के भोजन की । अत; देवताता पद से भी यही सूचित होता हे कि यज्ञ ८ १) शतपथ ब्राह्मण मे लिखा है फ “चस वें देवानामन्नम्‌” । , अथीत्‌ चरु देवताओं का अन्न है। चर का अर्थ है चावल । इस- किये यत्त मे चाचल की आहुति मी होनी चादिये । (२) न्य शब्द्‌ छवि धातु से वना हैं, जिसका अर्थ ह-हिंसा । यथा कृति हिंसाथास्‌ ।




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