अथर्ववेद का सुबोध भाष्य भाग - 1 | Athrvaved Ka Subodh Bhashya Bhag - 1

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Athrvaved Ka Subodh Bhashya Bhag - 1 by श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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तीन काण्डौकः परिचय ] यातुधानान्‌ चि छापय | জ. ৭৩1৪ यातन। देनेवारछोको रखामो । नीचेः पदयन्तामधरे भवन्तु ये नः জুহি ললনান एतन्यान्‌ 1 भ. २।१९।३ जो शत्रु दमारे धनवान्‌ भौर विद्वान्‌ प्र सैन्य भेजते हैं वे नीचे गिरे कोर क्षवनत दों प्षामदमायुधा संस्यास्येषां रा चीरं वधेयामि। अ, ३1१९७ इनके भायुघ में त्तीक्षण करता हू तथा इनका राष्ट्र उत्तम वीरोसे युक्त करके उन्नत करता हू । पथग्घ्रोषा उद्टखयः केतुमन्त उदीरताम्‌ । भ. ३।१९।६ कंडे लेकर दमला करनेवाले वीरकं घोष एथक्‌-पुथक्‌ ऊपर उठें | अवरूष्टा परा पत शरब्ये बह्मसंशिते । जयामिच्ान्‌ प्र प्र्यस्व, जद्येषां वरं वर, मामीषां मोचि कश्चन । भ. ३।१९।८ है शानसे तेजस्वी बने शस्त्र | तू छोडा जानेपर दूर जा, शनब्रुओंको जीत लो, क्षागे बढ, शथ्रुके वीरॉमेंसे श्रेष्ठ-श्रेष्ठ चीरोंको मार डाल, इनसेंसे किसरीकों न छोड । असों या सेना मसुतः परेषामस्सानेत्यभ्योजला स्पचेमाना । तां चिध्यत तमसापत्रतेन यथे- षामन्यो अन्ये ल जानात्‌ 1 भन. ३।२।६ हैं मरुरो | यह जो शन्रुकी सेना वेगसे स्पर्धां करती हुईं हमारे ऊपर क्षारदी है, उसको क्षप तमसाखसे वींघो जिससे उनसमेंले एक दूसरेकी न जान सके। उग्रस्य शरन्योरूदिम नयापि । ल, १।१०।१ उम्र क्रोचसे इसको ऊपर में छेज़ाता हूँ | सपत्ना अस्मद्घरे भवन्तु । क्ष. १1९२४ शत्रु हमसे नीचे रहें | शन्र॒ुका कघःपात हो 1 जाह पषा शततहम्‌ | क्ष, १14:४ इन दुष्टोंका सेंकडों कष्ट देनेका साधन दूर कर, श्त्न॒ुको पगज्ञित कर । एपामिन्द्रों बज्जेणाप शीषीणे चश्चतु । छा, १191७ द्र बध्रे इन दुष्टोके सिर काठ दे | न्रवीतु सव यातुमानयमस्मीत्येत्य । भ. १७1४ (१६) ° सत्र यावन देनेवाले झाकर बोलेंडी दम यहां हैं। दस्योः दन्ता बभूविथ । भ. १।७।१ तू दस्युका चिनाश्चक दै । ( दस्युका विनाश करना योग्य ই) পি ভি সি वि रक्षो विधो जहिं विज्युत्नस्य हनू रुच । भ. १।२१।३ राक्षत्ों, शन्रुबोंको परामूत कर। घेरनेवाके शन्रुके जवडे तोड। यः सपत्नो योऽखपत्ो यश्च द्धिषन्‌. छपति नः। देवास्तं सर्वं धूवन्तु ब्रह्मवे ममान्तरम्‌ । क. १।१९।९ जो सपत्न भोर जो क्षसपत्न हैं, पर जो शाप देकर इसमें द्वेष करके कष्ट पहुंचाता है, सब देव उसका नाश करें। मेरा कषान्तरिक कचच बद्यक्तान रे । হাল कवच जो पहनता है, उसका उत्तम रक्षण होता ই मानो पिदद्‌ चजिनाद्धेष्या या] ज. २०१ जो द्वेष करनेवाङे कुटिल दैः वे दमारे पाष न आ्व। तरेष्वञ्सो अस्मत्‌ छरस्वः पतन्तु ये अस्ताये चास्याः } छथ. १।१९।२ जो फेंके गये हैं, भोर जो फेंके जानेधाके हैं वे बाण चारों ओर दमसे दूर जाकर गिरें । यत्त आत्मनि तस्घां घारमस्ति। यद्धा केशेपु प्रतिचक्षण वा । तत्सव वाचाप हन्मो वर्यं 1 भ. १।१८.३ जो इसके शरीरमें, बुद्धिमें, केशोंमें, देखनेमें छुरा है, डस सबको हम वाणीकी प्रेरणासे दूर करते हैं ।( वाणीसे सूचना देकर उस दोषको दूर करते हैं। ) ददन्नप द्वयाविनः यातुधानान्‌ क्रिमीदिनः! स, १।२८।१ दुमुखो, यातना देनेवाल भोर भव क्या खाऊ दते वोलनेवाछे दुर्टोको भि जल! दवेता है | जैते -- भागे बढो । प्रस्फुरतं-- फुरती करो। पुणतः गृहान्‌ वद्दते-- संतोष देनेवालोंके घर जानो । क. १।२७1४




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