श्री उपासकदशांगसूत्रम् | Shri Upasak Dashang Sutram
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
496
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रस्तावना ও
স্পস্ট সিসি সাসপিস৯াসিসসপিসিজাপিসিএ
बताओ 4 = ^ = ^ ~ ० ৩
किचु उन के सरक्षकों द्वारा ग्रन्थ सरक्षण की यह परम्परा आगे जाकर ग्रन्यगोपन
के रूप में परिणत ही गई । ग्रथों का पठन प्राठन कम हो गया और उन्हे छिपा
कर रसा जाने लगा । उन्हे अपरिचित व्यक्ति को दिखाते हुए भी सकीच होने
लगा। सम्भव है मुस्लिम शासन में ऐसी स्थित्ति उत्प न हो गई हो, जिससे बाध्य
हो कर ऐसा करना पडा ।
किन्तु यह प्रवृत्ति अग्रजी के शासन में भी चतती रही । परिणामस्वरूप जैन-
ग्रथी का प्रचार बहुत कम हो पाया ।
शर्वो का परिचय
हावीर के बाद का आगम-साहित्य अज्जु प्रविष्ट तथा श्रनगप्रविष्ट के रूप में
विभक्त हुआ । अज्ञो में वारहवा दृष्टिवाद है।। उसके विविध अध्याया में १८
पूव भी श्रा जाते हैं। इस प्रकार एक श्रोर श्रद्ध साहित्य कौ उत्पत्ति पूर्वा से
बताई जाती है, दूसरी भर वारहवे अज्भ में सभी पूर्वा का समावेश किया जाता है।
इस विरोधाभास का निराकरण इस प्रकार होता है--भगवान महावीर पै वाद पूर्वो
के शाधार पर श्रज्धों की रचना हुईं। किन्तु पाश्वनाथ के साधुग्रा मै पूर्वों की
परम्परा लुप्त हो गई थी, सिफ ११ भ्ज्ध सूत्र ही रह गए थे, जब ब॑ महावीर के
शासन में सम्मित्नित हो गए तो उनके साहित्य को भी अज्भी में सम्मिलित कर
लिया गया।
यहा एक वात यह् मी उत्लेसनीय है किं चौदह पूर्वो क ज्ञाता के श्रुत कवली
कहा गया है। श्रर्थात् चोदह पूर्वे जान लेने के बाद शास्त्रीय ज्ञान पुण हो जाता है।
দিব পন গর साहित्य को पढने की आवश्यकता नही रहती । इससे यह निष्कप
निकलता है कि ११ अङ्गी मे प्रतिपादित ज्ञान पूर्वोसे ही शब्दत या ग्रथत उद्धृत
किया गया।
शीलाकाचाय ने आचाराग की टीका मे पूर्नों को सिद्धसेन कृत सममति तक वे
समान द्रव्यानुयोग में गिना है। इसका अ्रथ यह है कि प्रूवों का मुख्य विषय जैन
भा यताओं का दाशनिक पद्धत्ति से पतिपादन रहा होगा। प्रत्येक पूव के भरत मे
प्रवाद ब्द श्रौर उनका दृष्टिवाद मे समावेश भी इसी बात को प्रकट करता है ।
पूर्वों वे परिमाण के विपय में पौराणिक मान्यता है कि श्रम्वारी सहित पड़े हाथी
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