जैन पाठावली [भाग ७] | Jain Pathavali [Part 7]

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Jain Pathavali [Part 7] by अज्ञात - Unknown

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अप्पां कत्ता विकता य, दृद्दाथ य सुद्दाण या अप्पा मित्तममित्त चे, दृष्पट्टिय सुपट्िओं ॥शा अप्या चेव दमेयब्यो, अप्पा हु खलु दुमो । अष्या द॑तो सुद्दी होई, अस्सि लोए ব্য य ॥३॥ घरं मे श्रा दतो, संज्ेणं सवेण य। মাও प्रेहि दम्मते पंधेर वेदि य ॥४॥ जो सदं सहस्ाणं संगाभे दुज्जए भिये । एगं বিউউস भरप्पाणं एस से परमो লী |) श्रष्पाणमेव जुज्फाईि, किंते जुन्फेण पत्मओ | अप्याणमेव अपषाणं बनइचा सुहमेदए ॥ ६ ॥ पंविदियागि कों माणं पायं वदेव सोद च 1 . दुर्म चेष थप्पाणं सव्वमप्पे निए नियं 1७1 न त॑ं अरी कंठच्छेचा फरेइ, जं से करे अप्यणिया दुरप्पा से नादिर मचुप्रहे तु पते प्च्याणुतायेण देपापिहुणो ॥८॥ _अस्सेवमप्पा उ हपेज्जा निच्छिओ चइज्ज देह नहु घम्मतासर्ण। संतारित नो पयलेति इंदिया उवेति चाया व मुदंसणं गिरि।1६॥ भ्रष्पा हु खलु सय्य रक्खियव्वो सब्विदिएहिं सुसमादिए दि | अरक्तिसिप्रो जाइपई उत्देश सुरक्खिभो सब्बदृब्याण सुचर 1१०1 -सरीरमाष्टु : नायत्ति बीवो - बुच्च३ - नाविशो 1 संसारे -भरषयो वुत्तो घं ररंति मदेषिणों ॥१ ए




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