पं॰ रतनचन्द जैन मुख्तार व्यक्तित्व और कृतित्व भाग - 2 | P. Ratanachand Jain Mukhtar Vyaktitv Aur Krititv Bhag - 2

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८८२ ] [ पं० रतनचन्द जेन मु्तार | दंसणपुष्य जाणं छट्ड॒भत्थाणं भ दोण्णि उबभोगा। জ্মর্জ। जह्या केब्रलिणाहे जगवबं तु ते दो थि ॥४४1॥ पृ. हर. सं. अर्थ--छप्मस्थ जीवो के दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है, क्योकि छद्मस्थों के ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते । केवली भगवान के ज्ञान भौर दर्शन ये दोनो ही उपयोग एक साथ होते हैं । +-जें, ग. 7-10-65/5/ ब्लाग्विलाल झहेन्त-सिद्ध में भो उपयोग होता है शंका--अरहूंत ओर सिद्ध भगवान में उपयोग है या नहीं ? यदि है तो कौनसा उपयोग है ? समाधान--'उपयोग' जीव का लक्षरा है, यदि श्री अहूँत व सिद्ध भगवान में उपयोग न माना जाय तो उनके जीवत्व के प्रभाव का प्रसग भा जायगा। कहा भी है-- “उपयोगो लंक्षणम्‌ । सष्ठिविधोऽष्टबतु्मेदः ।'” सोक्षशास्त्र २८ व ९ । डीका-- उभ्य निमिस्तवशावुर्पण्मानश्चेतन्यानु विधायी परिणामउ पयोग: । स उपयोगो द्विविधः ज्ञानोपयोभो बर्शतोपधोगरलेति । शामोपयोगो5ष्टसेवः सतिल्ानं, भू तशानसभवधिशानं, मनःपर्य यज्ञानं, केवलशानं, श्र्‌ ताशानं, सत्य- ज्ञामे, विभङ्भुलान चेति । बर्शंनोपयोगरचतुविधः लक्षुदशंभमचक्षुईशंगनमवधिदर्शन केवलवशंस चेति । जीव का लक्षण उपयोग है । भ्रतरग भौर बहिरग निमित्तके वश से चतन्यानुविघायी परिणाम उपयोग है। वह उपयोग दो प्रकारका दै (१) ज्ञानोपयोग (२) दशंनोपयोम । ज्ञानोपयोग भाठ प्रकार का है मतिज्ञान, श्र्‌ तज्ञान, अवधिज्ञात, मनःपर्ययज्ञान, केवलज्ञान, मत्यज्ञान श्र्‌ताज्ञान, विभगज्ञान । दर्शनोपयोग चार प्रकार का है । चक्षुदशंन, अचक्षुदर्शन, अअधिदर्शन, केवलदर्शन । श्री भ्रहंत और सिद्ध भगवान मे केवल ज्ञानोपपोग और केबल- दशनोपयोग ये दो उपयोग होते हैं। कहा भी है--- “सजोगिकेवलीणं अजोगिकेबलीण भ०्णमाशे अध्यि केवलणाण, केवलवंसण, जुगवबुबशुला था होति । सिद्धाणं ति भण्णमारों अत्यि केवलणाणिणों, केवलश्सण, साथार-अणागारेहि जुगवबुवजुत्ता था होति।'! धबल पु० २ ओघालाप । सयोगकेवली, अयोगकेवली अर्थात्‌ श्री अहँत भगवान तथा सिद्ध भगवान का आलाप कहने पर इनके केवलज्ञान ओर केवलदशेन ये दोनो उपयोग युगपत्‌ होते हैं। अथवा उपयोग तीन प्रकार का है-- शुभोपयोग, झशुभोपयोग, शुद्धोपयोग । श्री अहँत व सिद्ध भगवान के कषाय का अभाव है, अत: उनके शुद्धोपपोग पाया जाता है। भी कुन्वकुन्दायार्य ते प्रब्चनसार गाया १४ में [ विगदरागो' “समस्त रागादि दोष रहिर्वाद्वोतरागः' ] विगतराग अर्थात्‌ समस्त रागादि दोष ते रहित जोक के शुद्धोपयोग बतलाया है । -णे ग./ 18-12-75 णा लडिध ब उपयोग में प्रन्तर शंका--लब्धि व उपयोग में क्या अन्तर है ? समाधान--मतिज्ञान इन्द्रिय व मन की सहायता से उत्वन्न होता है । इन्द्रिय व मन की रचना शानावश्श- कमे के क्षयोपशमासुसार होती है जिसके मात्र एक स्पर्शेन-इन्द्रियावरण का क्षयोपशम है उसके मात्र एक स्पर्शन-




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