सिंह सेनापति | Singh Senapati

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Singh Senapati by राहुल सांकृत्यायन - Rahul Sankrityayan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१) तक्षशिला मँ आचाय बहुलाश्च के सामने » > > [ दुसरे साथियों के ] बाद मुभे श्राचायं के सामने जाना पड़ा । आचाय॑ बहुलाश्व ने पूछा---/ठम्हारा नाम-गोत्र, तात !” “गोत्र काश्यप और नाम सिह” कहते मैंने गेंडे की ढाल आचार्य के सामने रखी । आचाय ने जहाँ-तहाँ लोहे की कोौलों से जदित उस ढाल को हाथ में लेकर--“बड़ी सुंदर है यह ढाल और साथ ही बहुत ही मजबूत भी।” “मेरे पिता ने गैंडे को अपने हाथ से मारा था, और उसीसे बनी दालों में यह एक है ।” “तो बत्स सिंह ! तुम्हारे पिता को तन्नशिलावालों की प्रिय वस्तु मालूम है, तभी तो उन्होंने खास तौर से इसे संपादन करके भेजा !” “लेकिन, आचार्य ! मेरे पिता तेरह वर्ष पहिले मर चुके । उस वक्त में पाँच ही वर्ष का था ।” “आह वत्स ! ब्रिना पिता के पुत्र का कष्ट मुझे खूब मालूम है। मे आठ वे का था, जब मेरे पिता मरे थे। किन्तु, मेरे तीन बड़े भाई और माँ थी | तुम्हारी माँ तो होंगी ?” “हॉ, मेरी पुत्र-प्राया जननी जीवित हैं। उनकी मैं पहली सन्‍्तान था। माने दूसरा व्याह किया, किन्तु सौभाग्य से उनके नये पति मेरे द्वितीय पिता साबित दए । उन्हीं की कृपा से में अब तक कुछ सीख-पढ़ सका हूँ ।? “तो वत्स |! मैं समझता हूँ, तुम शुल्क देकर नहीं पढ़ सकोगे; किन्तु उसकी पर्वाह न करो | तुम्दारे जैसे धर्म--निःशुल्क--अन्तेवासी [शिष्य] के लिये बहुलाश्व का घर खुला हुआ है |”




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