सप्ततिकाप्रकरण | Saptatikaprakaran

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Saptatikaprakaran by फूलचन्द्र सिध्दान्त शास्त्री -Phoolchandra Sidhdant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भरताचना ९ मूल गाथा तरीके मानी लछीथी ॐ परन्तु ए गराथाने च्र्णिकारे पाढ॑तर॑ लखीने पाठान्तर गाथा तरीके निर्देशी छे ; एट्ले “बड़ पणुवीसा सोलस गाया मूलनी नथी ए मारे चुर्णिकारनो सचोद पुरावो होवाथी सित्तरी प्रकणनी ७९ ग्राथाओ घटित थाय छे। भाद्य गाथाने मगल বাধা तरीके ममजवाथी वित्तरीनी मित्तर गाधाओ थई লাম छे 1? किन्तु इस गाथाके अन्तर्म केवल 'पाठतरो ऐसा छिखा होनेसे इसे मूल गाथा न मानना युक्त प्रतीत नहीं होता । जब इस पर च्रूर्णि और आचार्य मलयगिरिकी टीका दोनों हैं तब इसे मूछ गाया मानना डी उचिन प्रतीत होता है। हमने इसी कारण प्रस्तुत सस्करणमें ७३ गाथाएँ स्वीकार की हैं। इनमेंसे भन्‍्तकी दो गाथाएँ विषयकी समाप्तिक्े चाद श्रा हैं अत, उनकी गणना नहीं करने पर ग्रन्धका पित्तरी यह नाम सार्थक ठहरता है । ग्रन्थक्रता--सप्ततिकाके रचयिता कौन थे, जपने पावन जीवनसे कि भूमिको उन्होंने पवित्र किया था, उनके माता-पिता कोन थे, दीक्षा गुरु श्रौर विद्यागुरु कौन थे, इन सब प्रइनोंके उत्तर पानेके बतमानमें कोई साथन उपलब्ध नहीं हैं। इस समय सप्तत्तिका और उसकी दो रीका इमारे सामने हैं। कर्ताके नाम ठासमके निर्णय रनम इनसे किती प्रकारकी सद्दायता नहों मिलती | यद्यपि स्थिति ऐसी है तथापि जब हम शतककी अन्तिम १०४ व १०५ नस्परबाली गाथा्रोदे सक्ठतिकाकी मगर गाथा भौर अन्तिम गाथाका ऋमश, मिलान करते हैं तो चह स्वीकार करनेकों जो चाहता है कि बहुत सम्भव है कि इन दोनों अन्थोंके सकयिता एक ही आचाय हों । जैपे सप्त॒तिकाकी सगछ गाथामें इस प्रकरणको द्रष्टिवाद अंगकी एक रं दके समान वतलया है चेसे ही शतककी १०४ नम्बरवाली गाथार्मे मी उमे कमप्रबाद्‌ श्रुतरूपी सागरकी एकं टके समान बताया गया




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