पञ्चाध्यायी | Panchadhyayi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पत्चाध्यायी ११ छिपी हुई शक्ति का भान कराना है। इसके ভিত ভন प्रन्थरत्रों को टटोछना होगा जिनसे জাংলাগিন भावना को प्रोत्साइन मिलता है। + इस रृष्टि से प्रस्तुत प्रंथ का मनन करते समय हमारी दृष्टि आचार्य फुन्दकुन्द के प्रन्धों पर जा सकती है । कवि ने बद्री चतुराई से प्रस्तुत प्रन्थ मे उनका उपयोग किया है। यदि हम आचार्य कुन्दकुन्द के प्रन्थरत्रों का इसे भाष्य कहें ता काई अत्युक्ति न होगी। इस प्रन्थ मे अध से लेकर इति तक जितने भी विषय निबद्ध डिये गये हैं उन सब्र पर न केवल समयप्राश्ृत, प्रवचनसार और पच्चाश्तिकाय की छाप है अपि तु वे सब या ता इन ग्रन्थों का शब्द्शः अनुमरण करते हैं या वक्त प्रन्थो का सारांश छेकर प्रस्तुत प्रन्थ का कलेचर पुष्ट किया गया ই। यहां कुछ ऐसे बेल उपस्थित किये जाते है. जिनसे उक्त भभिप्राय की पष्टि द्ोती है | मंगलाचरण-- ; मरवचनसार मे सवं प्रथम भगवान्‌ महावीर फी स्तुति करके अनन्तर रोष तीथकर भौर सिद्धो की स्तुति की गई है | और इसके बाद शेष श्रमणो का नमस्कार किया गया है । मंगल गाथाएँ इस प्रकार हैं- एस चुरातुरमशुनिदव॑दिदं धोहषाइकम्ममलं । परमासि वडुम,रं तित्थं पम्मस्त कच्चरं ॥ ¢ ॥ উল শুরা तित्थयरे सतब्वतिद्धे विश्ुद्धसब्भावे | समरणे य णाणदंसणचरित्ततववीरियाबरे ॥ २॥ अग्र इन गाथाओं के प्रकाश में प्रस्तुत प्रन्थ के मंगलाचरण काक पद्यि-- पश्चाव्यायावयर्व॑ मम कठुंस॑न्‍्यराजमात्मतशात्‌ । श्र्थालो निदानं यम्य वस्तं स्तुवे महमगीरम्‌ ॥ ? ॥ सेषानपि तीर्थकराननन्त्दानहं नमामि समम्‌ | धर्माचायध्यापक्साधुविशष्टा-मु्न शरान्‌ वन्दे ॥ २ ॥ इन मंगलकोकों में भी ही क्रम स्वीकार क्रिया गया है जिसका दशन प्रवचनसार को मंग गाथाओं में हाता है । इनमे समंग्ल के अधिकारी व्यक्ति तो एक हैं ही । विशेष कर पदों की समानता यह कहने के लिये बाध्य करती है कि प्रस्तुत भ्रन्थ के फ्लोको की रचना प्रतरचनसार की मंगछ गाथाओ के आधार से की गई है । प्रबचनसार में জী ঘুষ तित्थयरे' और प्रस्तुत प्रंथ मे 'शेपानपि तीथंकरान” इसी प्रकार प्रवचनसार भे 'ससब्बस्द्धि' और प्रस्तुत प्न्थ में 'असन्तसिद्धानहं नमामि समम्‌' पद विशेष उछेसव- नीय है| इनकी यह समानता आकस्मिक नहीं है । रपष्ट है कि प्रस्तुत अन्थ का मंगलाचरण लिखते समय ग्रन्थ कार के सामने प्रबचनसार का मंगछाचरण খা। सत्ता का स्वरूपनिर्देश-- पंचास्तिकाय में सत्ता के स्व॒रूपनिर्देश के प्रसंग से यह गाथा आई है-- सत्ता तथ्वपयस्था तविस्सलूगा शरणं तफ्लाया | उष्पायवयधुवत्ता सप्पाडकक्वा हवह एक | समयप्राश्षत, श्रवचनसार और पंचास्तिकाय के मुख्य दोकाकार आचार्य अमृतचन्‍्द्र हैं| इन्होंने इस गाथा ४ टीका करते समय जो कुछ छिखा है. उसके प्रकाश में प्रस्तुत प्रन्थ के निम्नद्धिखित इलाकों की पढ़ि ये--




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