विवेकानंद साहित्य जन्माष्टमी संस्करण अष्टम खंड | Vivekanand Sahitya Janmshati Sanskaran Khand-viii

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Vivekanand Sahitya Janmshati Sanskaran Khand-viii by स्वामी विवेकानंद - Swami Vivekanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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विवेकानत्द साहित्य १० एक क्रदम भी नही बढ़ना चाहते। हिम में जम गये व्यक्तियों के सम्बन्ध में मैने जो पढ़ा है, वही मैं मनुष्य जाति के बारे में भी सोचता हूँ। सुना जाता है कि इस अवस्था में आदमी सोना चाहता है। यदि उसे कोई खींचकर उठाना चाहता है तो वह कहता है, मुझे सोने दो--वर्फ़ में सोने से बड़ा आराम मिलता है | “-- ओर उसी दक्षा में उसकी मृत्यु हो जाती है। हम लोगों का स्वभाव भी ऐसा ही है। हम छोग भी सारे जीवन यही करते रहते हैं--सिर से लेकर पैर तक वकफ़ं में जमे जा रहे है तो भी हम छोग सोना चाहते हैं। अतएव आदर्श अवस्था में पहुँचने के लिए सदा संघर्ष करते रहो, और यदि कोई व्यक्ति आदशे को तुम्हारे निम्न स्तर पर खींच लाये, यदि कोई तुम्हें ऐसा धर्म सिखाये, जो कि उच्चतम आदशें की शिक्षा नही देता, तो उसकी बात कान में भी न पड़ने दो। मेरे लिए बह नितांत अव्यावह्यरिक धर्म होगा। किन्तु यदि कोई मुझे ऐसा धर्म सिखाये, जो जीवन का सर्वोच्च आदर दर्शाता हो, तो मैं उसकी बातें सुनने के लिए प्रस्तुत हूँ। जब कभी कोई व्यक्ति भोगपरक दुर्बखताओं और निस्सारताओं की वकालत करे, तो उससे सावधान रहो। एक तो हम अपने को इन्द्रियजाल में फँसाकर एकदम निकम्मे वन जाते है, उस पर यदि कोई आकर हमें वैसी शिक्षा दे, तो उसका अनुसरण करके हम कुछ भी उन्नति नही कर सकेंगे। मैने एसी बातें बहुत देखी है, जगत्‌ ` के सम्बन्ध में मुझे कुछ ज्ञान है, और मेरा देश ऐसा देश है जहाँ सम्प्रदाय कुकुरमुत्तों के समान वढ़ते रहते हैं। प्रति वर्ष नये नये सम्प्रदाय जन्म लेते है। किन्तु मैंने यही देखा है कि जो सम्प्रदाय भोगाकांक्षी मानव का सत्याकांक्षी मानव से सम- झौता कराने की चेप्टा नहीं करते, वे ही उन्नति करते हैं। जहाँ परमोच्च आदर्शों का शूठी सांसारिक वासनाओं के साथ सामंजस्य करने की--ईश्वर को मनुष्य के स्तर पर खीच लाने की मिथ्या चेष्टा रहती है, वहीं क्षय का आरंभ हो जाता है। मनुप्य को सांसारिक दासता के स्तर पर नहीं घसीट ভালা चाहिए, उसे ईरवर के स्तर तक उठाना चाहिए। साथ ही इस प्रश्न का एक और पहलू है। हमें दूसरों को घुणा की दृष्टि से नही देखना चाहिए। हम सभी उसी एक लक्ष्य की ओर बढ़ रहे हैं। दुर्बेडता और सवलता मँ केवल परिमाणगत भेद है! प्रकाश ओौर अन्धकार में भेद केवल: परिमाणगत--पाप ओर पुण्य के वीच भी भेद केवर परिमाणगत-- जीवन ओर * मृत्यु के बीच में भेद केवल परिमाणगत, एक वस्तु का दूसरी वस्तु से भेद केवछ परिभाणगत ही है, प्रकारगत नही; क्योंकि, वास्तव में सभी वस्तुएं वही एक अखण्ड वस्तुमात्र ह । सव वही एक दै, जो अपने की विचार, जीवन, आत्मा या देह के रूप में अभिव्यक्त करता है, और उनमें अंतर केवछ परिमाण का है। अतः जो किसी:




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