श्री स्थानांग - सूत्रम् भाग - 1 | Shri Sthanang Sutram Bhag - 1

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Shri Sthanang Sutram Bhag - 1 by आत्माराम जी महाराज - Aatnaram Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समाप्त कर दिया, अत: समाज में भाई और बहिन के दाम्पत्य जीवन के प्रति अरुचि पैदा हो गई थी। ऋग्वेद में भी यमी अपने भाई यम से रत्यानन्द की इच्छा प्रकट करती है ओर यम उससे सहमत नहीं होता ओर बहिन कौ रत्यानन्द की प्रार्थना को दुकरा देता है। ऋग्वेद का यह उल्लेख भगवान्‌ ऋषभदेव द्वारा किए गए सभ्यता-स्थापना के प्रयास की ओर संकेत करता हुआ जैन संस्कृति और साहित्य की प्राचीनता को ही प्रमाणित करता है। मोहनजोदडो की खुदाई से प्राप्त अनेक मूर्तियों और अवशेषों को पुरातत्त्ववेत्ता जैन- सस्कृति के अवशेष मानते हैं, क्योंकि वहां यज्ञ-प्रधान ब्राह्मण-संस्कृति का कोई अवशेष प्राप्त नहीं हुआ, योग-प्रधान संस्कृति के जो अवशेष प्राप्त हुए हैं वे जैन संस्कृति के ही हो सकते हैं, अत: जैन संस्कृति की प्राचीनता इतिहास सिद्ध है। भगवान ऋषभदेव का ही नहीं ““मुनयो वातरशना पिशड्भा बसने मला:'' (ऋक्‌-- १०।१३५।२) इत्यादि शब्दों द्वारा जैन-मुनीश्वरों की ओर ही संकेत किया गया है, क्योंकि बात- रशना--वायु ही जिनकी लगोटी है, अर्थात्‌ अचेलक मुनि, 'बसने मला:' जिनके वस्त्र एवं शरीर पर मैल जमी है, ये विशेषण जैन मुनियों के ही हो सकते हैं। जलल-परीषह को सहन करने वाले जैन मुनियो के शरीर पर ही मैल देखी जा सकती है, क्योकि वे शरीर की ममता से सर्वथा मुक्त होते हैं। श्रुत-साहित्य जैन आगमों के लिए 'श्रुत! शब्द का प्रयोग होता है और जैन-साहित्य के साथ-साथ विकसित होने वाले बेदों के लिए ' श्रुति' शब्द का प्रयोग किया गया है। श्रुत और श्रुति ये शब्द दोनों संस्कृतियों के मूल ग्रन्थों के निकटतम कालों में विकसित होने का संकेत करते हैं और दोनों का श्रवण-परम्परा से अर्थात्‌ गुरु-परम्परा से प्रचार और प्रसार मानते हैं। फिर भी दोनों में मौलिक भेद हैं। बैदिक परम्परा वेदों को अपौरुषेय मानती है, पौरुषेय मानने की स्थिति में भी उन्हे ईश्वर-प्रणीत कहती है, परन्तु श्रमण-संस्कृति आगमों को केवलकज्ञानियों द्वारा उपदिष्ट रचना स्वीकार करती है, साथ ही वह श्रुत उसी सांस्कृतिक साहित्य को कहती है जो यथार्थं हो, सर्वज्ञोपदिष्ट हो ओर मंगलकारी हो। वैदिक परम्परा केवल चार वेदों के लिए ही श्रुति शब्द का प्रयोग करती है, परन्तु श्रमण-परम्परा में प्राचीन एव अर्वाचीन सभी शस्त्रो के लिए ' श्रुत ' शब्द का व्यवहार होता है। तभी तो जैन विद्वान्‌ कहते है-श्रुत' शब्दोऽयं रूडिशब्दः-..इति सर्वमतिपूर्वस्य श्रुतस्य सिद्धिर्भवति! अर्थात्‌ ' श्रुत ' शब्द रूढ है ओर श्रुतज्ञान मे किसी भी प्रकार का मतिज्ञान कारण हो सकता है। अतः अब आगमं के लिखित रूप मेँ दृश्यमान होने पर उनके लिए भी श्रुत शब्द का प्रयोग किया जाता है। आरम्भ में यह श्रूयमाण साहित्य के लिए ही प्रयुक्त होता रहा होगा। जैन मुनीश्वरो को लिपिर्यो का ज्ञान था! समवायांग सूत्र १८ मेँ अठारह लिपिर्यो का उल्लेख है ओर ब्राह्मी लिपि में ४६ अक्षर भी बताए गए है। फिर भी वे परिग्रह-त्याग की दृष्टि से लेखन-कार्य मेँ रुचि न लेते थे। जब भगवान महावीर के निर्वाण से लगभग नौ सौ अस्सी वर्ष पश्चात्‌ दुष्काल आदि के कारण मानवीय स्मरण-शक्ति क्षीण होने लगी तब जैन मुनीश्वर ने ফআলার যদ ১ ৮৩৩৪৩ 12 ७००७००७०७ न... प्रस्तावना




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