सन्त वाणी | Sant Vani

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Sant Vani by वियोगी हरि - Viyogi Hari

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१६ संन्ने-वाशी १३ | सात सरग अपमान पर, भटकत है শি खादिकं तो खोया गहीं, इसी महत्व में ट्रेंड । [ गरोबदास ই एक संप्रदा, सबद घट, एक द्वार सख-संच; इक आत्मा सब मेव मो, दृजो जग-परपं॑च । { मौला ¶ अब हैं कातो बेर करों? कहत पुकारि प्रभू निज मुख ते--- “जट-घट हों बिहरों ।” १९ জাই ই, बन शोजन आदं ! सथं निवासी सदा भलेषा, तोदी संग समभाई । युष्य-मध्य ज्यों दास बसत दे, सुककर-मध्य ज्यों छाई; से ही हरि षसौ निरन्तर, धद ही खोजो भाई ! [ इरिदास [ नानक १३६ गनइसार अपराधी तेरे, माजि कां इम जहि, दाद्‌ देखया सोधि सब, तुस बिन कहिं न समाई । [ दादुदयाक्ष




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