वसुनन्दि श्रावकाचार | Vashunnid Sharavkachar

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Vashunnid Sharavkachar by पं. हीरालाल जैन सिद्धान्त शास्त्री - Pt. Hiralal Jain Siddhant Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्थ-परिचय १४ शीविशालकीर्ति, त० मं* भीलिखिमीचन्द्र, त० मं ० सहसकीर्ति, त० मण्डलाचार्य श्री भी श्री श्री ओमेमिचन्द् तदाम्माये खण्डेलवालान्वये पहाक्यागोत्रे साह नानिग, तत्य भायाँ शीलतोयतरज्षिणी साधवी लाड़ि, तयोः पुत्र्य प्रथम पुत्र शाह श्रीरग, तस्य माया हय र प्रथम श्री यद्रे द्वितीय हरषमदे | तयोः पुतः शाह रेट, त्स्य सार्या रैशादे । शाह नानिंग दुतिय पुत्र शाह लाखा, तस्य मायं लाढमदे, तयो पुत्र शाह नु, तस्य मायी नौलदे, शाह नानिग तृतीय पुत्र शाह लाला तस्य माय ललिते, तयो पुत्र २, प्रथम पुत्र चि० गांगा, द्वितीय पुश्च सागा। एतेषां मध्ये शाह श्रीरंग सेन इदं बघुनन्दि (उ~) पसकाचार भ्रन्थ ज्ञानावरणी कर्मद्व- निर्मिस लिख्यापितं | मश्डलाचार्य भ्री भरी श्री श्री श्री नेमिचन्द्र, तस्य शिष्यौ वाद खवीरा जोग्य घटापितं । शुर्भ भवतु | मांगर्य॑ दब्यात्‌। लछिस्वितं जोसी सूरदास | ्ानवान्‌ क्षानदानेन निभंयोऽभयदानतः । श्न्नदान स्सुखी निस्यं निर्म्याधि: भेषजारवेत्‌ ॥ १ ॥ सम्यक्सयमूल श्रतपीटयन्‍्ध: दानाडिशाखा रुणपक्लघाक्या । অঙল (যহা:) प्रसूनों जिनधमंकल्पह्‌ मो मनो&भीष्टफलादबुस्त (फलानि दें) ॥ दशियामें इतना संदर्म और लिखा है - “संबत्‌ १६५४ ज्येष्ठ सुदि तीज तृतीया तिथी सोमवासरे अजमेरगढ़मध्ये लिग्वितं च जोसी सूरदास अर्जुनसुत ज्ञाति बुन्दीवाल लिखाइतं च चिरंजिव” | उपयुक्त प्रशस्ति संस्कृत मिश्रित हिन्दी भाषामें है। इसमें लिखानेबाले शाह नानिग, उनके तीनों पुत्रों और उनकी छिर्योका उन्लेख किया गया हे । यह प्रति शाह नानिगके ज्येष्ठ पञ शरीरेगने जोशी सूरदाससे लिलाकर्‌ संवत्‌ १६५४ के आपषाढ़ वदी ११ मंगलवारको श्रीमश्डलाचार्य भद्टारक नेमिचन्द्रजीकी शिष्यणी मत्रीराबाईके लिए प्रदान की थी । प्रशस्तिके अन्तिम श्लोकका भाव यह है-- यह जिनधर्मरूप एक कल्पवृत्ञ है, जितका सम्य्दर्शन मूल है, श्रुतश्ञान पीठबन्ध हैं, अत दान श्रादि शाखाएँ हैं, आवक ओर मुनियोंके मूठ व उनरगुणरूप पव्लव हैं, और यशरूप फूल हैं। इस प्रकारका यह जिनधर्मरूप कष्पदरूम शरणाथीं या आश्रित जनोंकी श्रभीष्ठ फल देता है ।”? म--यह बा० यूरजभान जी द्वारा देवबन्दस लगभग ४५ वपं पूवं प्रकाशित प्रति है। मुद्रित होने में इसका संकेत 'म? रखा गया है। हमने प, क और ध प्रतियोंके अनुसार गाथाश्रों की संख्या ५४६ ही रखी है । २-प्रन्थ-परिचय ग्रन्थकारने अपने इस प्रस्तुत ग्न्थका नाम ख्यं॑ 'उपासकाध्ययन! दिया है, पर सर्व-साधारणमें यह बसुनन्दि-भावकाचारः नामसे प्रसिद्ध है। उपासक अर्थात्‌ आबकके अ्रध्ययन थानी श्राचारका विचार जिसमें किया गया हो, उसे उपासकाध्ययन कहते हैं। द्वादशांग श्रुतके भीतर उपासकाध्ययन नामका सात्तयाँ प्रग माना गया है, जिसके भीतर ग्यारह लाख सत्तर हजार पदोंके द्वारा दाशेनिक आदि ग्यारह प्रकारके श्रावकोंके लक्षण, उनके त्रत धारण करने की विधि और उनके आचरणका वर्णन किया गया है। वीर भगवानके निर्वाण चले जानेके पश्चात्‌ करमशः ६२ वर्षमे तीन केवली, १०० वर्प पोच श्रुतकेबली, १८३ वर्षमं दशपूर्बो और २२० वर्षमें एकादशांगघारी आचार्य हुए। इस प्रकार बीर-निर्वाणके ( ६२ + १०० + १८३ + २२० = ५६५) पांच सौ पेंसठ वर्ष तक उक्त उपासकाध्ययनका पठन-पाठन आचार्य- परम्परामें अ्रविकलरूपसे चलता रहा | इसके पश्चात्‌ यद्यपि इस अंगका विच्छेद हो गया, तथापिं उसके एक देशके शाता आचाय होते रहे और वही आचार्य-परम्परासे प्रात शान प्रस्तुत ग्रन्थके कर्ता झचाय वसुनन्दिका प्राप्त हुआ, जिसे कि उन्होंने घर्म-बात्सल्वसे प्रेरित होकर भव्य-जीबोके हिताथ रचा |! उक्त पूर्चामुपूर्षीकि प्रकट ---------------~ १. देखी प्रशस्ति ।




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