जिनसहस्त्रनाम | Jin Sahastranam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना शरी मूलाचासमं स्तव या स्तवनके छह मेद बतलाये गये हँ- नामस्तवन, स्थापनास्तवन, द्व्यस्तवन, छ्ेत्रतवन, कालस्तवन और भावस्तवन । नामस्तवनकी व्याख्या टीकाकार वदुनन्दि श्राचा्यने इस प्रकारकी है :-- 'चतर्विशतितीथंकर।्णा यथार्थाजुगतैश्टोसरसहस्तसंख्येन्नांममि: रतवर्न चतुविशतिनामस्तवः” । ( मृज्ञाचार, ७, ४१ ठीका ) अर्थात्‌ चौबीस तीथ्थकरोंके वास्तविक अ्र्थवाले एक हजार आठ नामोंसे स्तवन करनेको नामस्तव कहते हैं । मूलाचारके ही आधार पर पं० आशाधरजीने भी अपने अ्रनगारधर्मास्तके आठवें अध्यायमें स्तवनके थे ही उपयुक्त छुद्द भेद बताये हैं और नामस्तथका स्वरूप इस प्रकार कषा है :-- ््टोत्तरसह लस्य नान्नामन्व्थंम्ंताम्‌ । वीरान्तानां निरुक्तं यत्सोऽन्र नामस्तवो मतः ॥ ३९ ॥ श्रथांत्‌ दृष्रभादि वीयन्त तीर्थकर परमदेवका एक इजार आठ सार्थक नामोंसे तवन करना से नाम- स्तव॒न है | जेनवाड्ययका परिशीलन करनेसे षिदित होता हे फि यह एक श्रनादिकालीन परम्प चली ब्राती हे कि प्रः+कं त।थकरके केवल श्ञान होने पर इनद्रके श्रादेशसे कुबेर श्राकर मगवानके खमवसरण (समामंडप) की स्वना करता है श्रोर देव, मनुप्य तथा पशु-पद्‌ श्रादि বিষন্ন জীবন मगवानका उपदेश सुननेके लिए पहुंचते हूँ । उस समय सदाके नियमानुसार इन्द्र भी आकर भमगवानकी बन्दना करता ই श्रीर एक हजार आठ नामोसे उनकी स्तुति करता है । आचाय॑ जिनसेनने श्रपने मदापुराणमें इन्ह्रके द्वाय भगवान्‌ ऋषम- नाथकी इसी प्रकारसे स्तुति कराई है । एक हजार आढ नाम ही क्यो ! तीथकर्तकी श्रष्टोत्तर सदृलनामसे ही स्तुति क्‍यों की जाती है, इससे कम या अधिक नामोसे क्‍यों नहीं की जाती; यहु एक जटिल प्रश्न है श्रौर इसका उत्तर देना श्राखान नदीं है । शाप्लोके आलोड़न करने पर भी इसका सीधा कोई समुचित उत्तर नहीं मिलता है । फिर भी जो कुछ आधार मिलता है उसके ऊपरसे यह अ्रवश्य कद्दा जा सकता है फि तीर्थकरोंके शरीरमें जो १००८ लक्षण और व्यज्ञन होते हैं, जो कि सामु- द्विक शास््रके अनुसार शर्यरके शुभ चिन्द या सुलक्षण माने गये हैं, वे ही सम्मबतः एक इजार आठ नामोंसे स्तुति करनेके आधार प्रतीत होते हैँ । ( देखो आचाय जिनसेनके सहल्तनामका प्रथम छोक ) | अन्य मतावलम्बियोंने भी अपने-अपने इष्टदेवकी स्तुति एक हजार नामोंसे की है और इसके साक्षी विष्णुसहसनाम, शिवसहइस्तनाम, गणेशसहुखनाम अम्पिकासहललनाम, गोपालसहनाम आदि अनेक सदहस- नाम हैं । शिवसहलनामकार शिवलीसे प्रश्न करते हैं :--- लव नामान्यनन्तानि सन्ति यद्यपि शङ्कर । तथापि सानि दिष्यानि न शायन्ते मयाऽधुना ॥ १६ ॥ प्रियाणि तव नामानि सर्वाशि शिव यद्यपि । तथापि कानि रम्याशि तेषु भियतमानि वै ॥ १७ ॥ [ शिवसक्तनाम ]




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