बालगंगाधर तिलक - स्मारक | Balgangadhar Tilak Smarak

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
श्रेणी :
Book Image : बालगंगाधर तिलक - स्मारक  - Balgangadhar Tilak Smarak

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about बद्रीशाह दुलधरिया - Badrishah Duldariya

Add Infomation AboutBadrishah Duldariya

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
देशभक्ति-विश्ांतेकाध्याय। प्‌ द्वितीय आन्हिक | देशभाकति विभ्रूतियों का प्रतिपादन । प्रथस आन्हिक में यह कहा गया है कि सुसाध्य आजीविका शान्ति रवतल्त्र- ता और पौरुष के समादिगत हुए बिना समाज में कोई सुखी नहीं हो तकता है । किन्तु ससाध्य आजीविका आदिका मनुष्यों के व्याक्िंगत हित की उपेक्षा करके जातिगत हित में लगे बिना समशिगत नहीं हो सकते हें। इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है भारत । यह प्रथक्ष है कि इन दिनों सुजला सुफछा शस्यस्यामला मारत सूमि के सन्तानों को घोर अन्न कष्ट हो रहा है आज साई अन्नपूर्णा के प्रिय प्रसोद कानन इस सारत में उद्रएूरण परे पौरुष समझा जाने लगा हैं आज वसु- सती बुद्धिमती इस भूमि का सुखारविंद चिन्तारूँपी तुषार लेखा से आऊकुलित हो रहा है आज रत्नाकर सेखला हिमर्गिरि सुकुटा इस भूमि को स्वतन्त्रता के दशन दुर्जभ हो रहे हैं आज अध्यात्मद्क्षा बीर जननी इस सूसि में मददादेन्य छाया हुआ है आज साहित्य घनाय्रगामी इस भारत की साहित्यरूपी सान पताका उसी के सन्तानों के हाथ से उखाड़ी जा रही है आज उसकी कीर्तिरूपी उज्ज्वल कोसुदी अश्ताचक चूड़ावलम्बिनी हो रही है आज सारत सन्तानों में सब को किसी न किसी प्रकार का दुःख किसी न किसी प्रकार की चिन्ता ठगी हुई है चाहे उन में कोई सुकुरधारी हो अथवा कन्थाघारी चाहे कोई विद्यावारिधि हो अथवा अनेक्षर- सट्टाचार्य चाहे कोई योगी हो अथवा भोगी । सूपतियों को चाहे अन्न कष्ट न हो किन्तु उन को चहद सहा दुःख वह दारुण चिन्ता है जिसका अनुमान नहीं किया जा सकता है निर्धनों को चाहे राजा सहाराजाओं का सा दुम्ख न हो किन्तु पापी पेट सदा उनके होश उड़ाए रहता है विद्वानों का विद्याविठास और सूखी की आविद्या की लोरियां तभी तक हैं कि जब तक पेट भर हुआ और शरीर ढका हुआ है यो _ णियेों का योग और सोागियों का भाग भी तभी तक है कि जब तक समाज में अन्न सुलभ और आहार विहार स्वच्छन्द हैं । सध्यरथववाति वाले सारत सन्तान भी सुखी नद्दीं हैं क्योंकि इन दिनों उन के लिये आजीविका के प्रायः ससी द्वार बन्द हैं केवर एक द्वार सेवाबृत्ति का खुला हुआ है जिस से वे जनमेजय के होताओं के मन्त्रों से सुग्ध हुए सपी के समान बात परतन्त्रता में पड़ रहे हें इस द्वार ते प्रवश करने के अतिरिक्त उन को ओर किसी बात की इच्छा ही नहीं है प्रचेदा हो जाने पर फिर उन को किसी काम के लिये समय मिलना कठिन हो जाता है इस चृत्ति में वे ऐसे उच्छझ जाते हैं कि इसके आतिरिक्त उन का और कोई लक्ष्य रहता ही नहीं ऋरमराः वे लच््यहीन हो जाते हें । यही नहीं वरन उन का आहार विहार भी श्वच्छन्द नहीं रहता पैय्य से भोजन करना और सुख से सोना उनको दुलेभ हो जाता हैं अर्थात्‌




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now