श्री रामचरित मानस सिद्धान्त - तिलक खंड 2 | Shri Ramcharit Manas Sidhant Tilak khand - 2

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Shri Ramcharit Manas Sidhant Tilak khand - 2  by श्री गोस्वामी तुलसीदास - Shri Goswami Tulsidas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो ३) ८९८ [ श्रौरापचरितपानस नहीं हैं, गे प्रसंगवशात्‌ विभीपण 'ाहि के प्रसंग में मयोदा के साथ इन्हें भी दिखावेंगे। विवाद से वामी तक १२ वर्ष हो चुके । “सब लायक'--राज्य के लिये जिन शुणों की श्ावश्यकता दे, उनसे ये पूण हैं; यथा--'“संमतझिपु लोवेपु बसुधाया: क्षमागुसी: । चुद्धया ब्दस्पते खुल्यों वीर्य 'चापि शचीपते: ॥ तथा सर्च प्रजाकान्तें: भी ति संजननेः पितुः । शुरीर्विरुरुचे राभो दीप्तः सूर्य इवांशुमि: ॥” (वार्मी० र१1३२-३३)। (२) “सेवक सचिव सकल'**”--पहले अपना सम्मत कद्दकर तब सब मंत्री, प्रजा झादि की प्रसन्नता भी कहते हैं। इसका भाव यदद कि जिसपर ये सब झलुकूल हों, वही राज्याधिकार के योग्य होता है। 'ले हमरे झरि मित्र उदासी ।'--श्रु झादि हमारे हैं, राम से तो सभी सनेद करते हैं, यथा-“जासु सुमाय 'घरिहु श्रनुकूला ।” (दोष ३१) । ये प्रिय सबहि ज््दों लगि प्रानी ।” ( कष० दो० ११५ ) रास शचु हैं, इन्द्रादि देवता, मित्र और संत लोग उदासी न हैं | (३१ सब्दि राम प्रिय **” यथा--“कोसलपुरवासी नर, नारि घृद्ध झरा वाल । प्रानहें ते प्रिय लागत, सब कहूँ राम कृपाल ॥” ( था हो« २०४ ) | प्रभु झसीस जनु'* ”- हमारे भाग्य ऐसे कहाँ थे ? यदद सो 'छापफे छाशीर्चाद का फल्न है कि सर्वे-प्रिय और सुयोग्य पुत्र हुए । असीस--“घरह घीर दोइद्िं सुत 'चारी । त्रिमुवन बिदित भगत भय द्ारी ॥” ( दा० दो० १८८) | झापकी अझसीस स्ं-प्रिय दे; पैसे पुत्र भी हुए, मानों वे झाशीवांद दी सूर्तिमान्‌ हैं । (४) 'बिप्र सदित परिवार *”--श्राह्माणों को उ पयुक्त-'सेवक सचिव सकल पुरबासी' से प्रथक कहा, बयोंकि शुद्ध छीर विप्र तो साशात्‌ भगवान के रूप ही हैं, यया-“मम मूरति मदिदेवमयी है।” (वि १३३ ) । “बंद शुरु पद * कृपासिघु नर रूप हरि ।” ( था० मं० ) । इस तरद शुरु-चिप्र फा भी स्नेह फहकर बढ़ाई की, प्रत्य्त नहीं कहा । प्राहमाणं का रनेद करना बहुत बढ़ी बढ़ाई है, यइ क्यों कर प्राप्त हुई, इसका साधन आगे कहते हैं-- जे शुरुचरन-रेनु सिर. घरदी । ते जनु सकल बिमव घस करी ॥५॥ भोहि सम यहु अनुभयेच न दूजे । सब पायेउं रज ' पावनि पूजे ॥९॥ व असिलाप एक सन मोरे । प्ूजिद्दि नाथ छनुग्र तोरे ॥७॥ मुनि मसन्न लखि सहज सनेद्व । कहेठ नरेस रजायसु देह ॥८॥ बोददा-राजन राउर नाम जस, सब श्रभिमतदातार्‌ । फल श्रदुगामी सहिपसनि, सन-श्रसिलाप ठुम्हार ॥ शो» न अये-छो लोग शुरु-चरण की धूल को शिर पर घारण करते हैं, वे मानों सभी ऐश्वर्यों को झपने यश में कर हेते हूँ ९ इसका अनुभव मेरे समान और किसी ने नहीं किया; ( मैंने जो कुछ पाया है चढ दा का चरणों की घूज़ के पूजने दो से पाया है ॥॥६॥ अब मेरे सन में एक ही झमिलापा है, कलर हि सा ही झतुप्रद से पूरी हांगी ४ राजा का स्वाभाधिक स्नेह देखकर मुनि सब-पे-सब 9 व सभी ! आश्ना दीजिये ८ हे राजन्‌ ! ापके नाम और यश हो सब ( बा, देश _ वाले हैं। दे मद्दीपमि ! 'झापके मन की झमिलापा ( तो 9 फल की 'छतु+




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