निरूक्तम् प्रथमो भागः | Nirukttam Prathamo Bhag
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
14 MB
कुल पष्ठ :
568
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)प्रावकथन ६
अप्राप्य है नैते, निषएटवः यह अतिपरोक्षवृत्तिगत भय है। इसी शब्द
की निगन्तव यह परोक्षवृत्ति हु भौर “निगमपितार.” অই সময
है। निरुक् के लक्षण में ऊपर छिखा है वर्णायमो वर्ण विपर्यय०
इत्यादि ध्याकरणशास्त्र में उणाहि प्रकरणगत शब्द परोक्षत्रत्ति कह कर
“तमाप दणादय.” यह वताया मी ह । भेक क्रिया होने पर भी
किसी एक क्रिया को छेकर शब्द का निर्ववन केवर निरः शात्तरगम्य है
यहां समाहता प्रत्यक्षशृत्ति में “समाहताः” एकत्र करने के अर्थ में गो
जादि से देवपत्न्यन्त का सहोत है। शब्दराशि आकाश में अनन्त है।
उन में ते इुछ शब्द আল্লা श्पियों ने एकन्र कर निधण्दु बनाया है।
एक अभिधाने मे अनेकं धातुभों का निर्वचन किप प्रकार इभा इस पर
कहा है :--“नामान्याल्यातजातानि” नाम सब आउज्यात से बने है
ह नित्त का सिद्धान्त ह जो उसका क्रियापद है उससे परोक्षवृत्ति से
डैकर निर्वचन प्रकार बताया है। जो रुट् शब्द हैं वहां भी जो ভিন
शब्द है उन्हें जो धातु रूढ़िंपह के अथ को वताती है उते देकर निर्वचन
करना बताया ह ।
निघण्टु के शब्दों का निर्वचन निरक्त में किया है। वेद में जिन
शब्दों का समाच्नान हा उनका निर्वचन वेदार्थ के भति निगूढ होने ते
किया गया। वेद् शब्द क्रिस का वाचक है समाल से प्रथम उसका
निवेश यह है “वेबन्ते शायन्ते प्राप्यन्ते धर्मादिपुरुपा्था' हति वेदा. ।*
प्रत्यक्षेणानुमित्या था यत्तूपायो भ दुध्यते। पएुत्त बिडन्ति वेदेन
तत्मा्ेदख वेदता” । प्रत्यक्ष अनुमान आदि प्रमाणो से शित चतु का
ज्ञान नहीं हो सकता उस अन्यक्त ग्रह्म का ज्ञान जिलते होता है वह
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