भारतीय प्रतीकविद्या | Bhartiya Pratikvidhya
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
24 MB
कुल पष्ठ :
624
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
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यह तो सभी जानते है किं इन देव-देवियो की आराधना विभुदक्तिकेरूप में होती है,
इसलिये साँप किसी न किसी गुण वा शक्ति का प्रतीक हो सकता है। शिव के विषय में
भर विष्णु तथा देवी के विषय में भी पुराण और तन्त्र-प्रल्यो में मिला कि यह काछ का
प्रतीक है। फिर प्रश्न उठा कि काल क्या वस्तु है, क्योकि काछ का निर्णय करनेवाला
अहोरात्र कल्पित कालमान-मात्र है गौर कार कल्पना नही, कोई द्रव्य है। दर्शन, पुराण और
तस्त्र-गन्यो में खोजने से पता रूगा कि काछ गति-शक्ति है, जो किसी को स्थिर नही
रहने देता ।* इसी प्रकार मैने त्रिशुछ को महादेव के हाथ में त्रिगुण का प्रतीक समा ।
किन्तु वुदध-प्रतिमा के साथ इसका अत्यन्त निकट सम्पकं देखकर खोजने पर पता चखा कि
शाकतों ने इसे त्रिशक्ति का प्रतीक मानकर ग्रहण किया हैं। यह विरक्ति कां सिद्धान्त
तस्त्र और पुराणों में तो भरा पड़ा है ही, खोजने पर वेद में भी मिला। आगे बढने पर
मोहन-जो-दडो में प्राप्त पद्युपति-मूत्ति पर च्रिशक्ति का त्रिशुल मिला । इससे आगे बढने
की सामग्री तही रहने के कारण रक जाना पडा । बौद्ध प्रत्तीको में इसे हँढते समय पता
लगा कि महमूद गज़नवी की कन्न पर त्रिशक्ति के दोनों त्रिकोण बने हुए हे और बीजापुर
में महम्मद शाह की कन्न पर श्ाक्त या योग का चक्र बना हुआ है, जिसमें मूलाधार के सभी
लक्षण हें। गजनी में शिवलिंगाकार स्तम्भो का भी पता लगा । इन सब पर यह प्रदन
उठ खड़ा हुमा कि इस्लाम ने त्रिशक्ति इत्यादि के इन प्रतीकों को किस रूप में ग्रहण
किया । इसके लिये मूलग्रन्थों के अनुशीलन के हेतु प्राचीन गौर आधुमिक धरबी और
फारसी के ज्ञान की आवद्यकता हुई । इस जन्म में यह असम्भव समकर इस विचार
को यही रोक देना पडा इसी तरहं स्वस्तिकं वैदिक प्रतीक है। मोहन-जो-दडो कै
उत्वनन मे यहं वहुत बड़ी संख्या मे मिला है | बुद्ध का यह प्रिय प्रतीक है। यह গ্রহ
का प्रतिरूप है गौर वैष्णवं तथा बौद्ध प्रततिमाभो में तिबुल भौर स्वस्तिक के
स्थान में क्रॉस (--) बना हुआ है! प्रन ততবা है कि क्या ऋक्िस्तानों ने
वौद्ध ल्लोत पे त्रिशुछ् को क्रॉस के रूप में ग्रहण किया। यदि नहीं, तो क्रॉस आया
कहाँ से और इसका केवल फाँसी के तस्ते का रूप भर ही है या इसके पीछे कोई सूक्ष्म
विचार भी है। महात्मा ईसा के पहिले स्रिस्तधर्म में क्रॉस था या नही, इत्यादि | किन्तु
यह अनुसन्धान का एक विभिन्न विषय हो जाता है। इसलिये इसे यही छोड़ देना पड़ा ।
इससे यही कथन अभीष्ठ है कि मे किसी सिद्धान्त को मानकर न चछा। अनुसन्धान के
विषयो की खोज में जो सत्य मिले, उनसे अनुसन्धान के सिद्धान्त वनते गये । कल्पित सिद्धान्त
को मानकर उसका प्रमाण दृंढते फिरना प्रायः हठधर्म होता है, सत्य की खोज नही ।
प्रतीको की खोज मेँ पत्ता र्गा कि इनके मूकरूप भिन्न शब्दों और रूपो में बेद में
वर्तमान है । कभी इनका रूप पूर्ण है और कभी केवल संकेत-मात्र है, किन्तु है सभी ।
पौराणिको, वौद्धो और जेनों ने कभी ज्यों-का-त्यो और कभी थोड़ा-बहुत परिवत्तेन के साथ
इन्हे ग्रहण कर अपनी साधनाओ में इनका व्यवहार किया । जैसे, ऋग्वेद मे है--धस्येमा.
পপ পপ
१. जोषनिष्ठा या नित्यता तस्या आच्छादने पति मेव नित्यता श्रस्ति जायते वर्धते विपरिणमते
भपीयते बिनश्यतोति पद्मावयोगात् संङृचिता कालपुदवाच्या दशमं त्वम् । -प्रशरामकखसुतम् । १,४।
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