दोहा - अन्त्याक्षरी | Doha Antyakshri

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Doha Antyakshri by भगवती देवी शर्मा - Bhagwati Devi Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[दोहा-भन्च्याक्षरी कव्रीर सुपने रैन के, ऊघड़ि आये नैन) जीव पड़ा बहु लूटि में, जग्े तो लैन न दैन ॥ १६। कहा कियौ हम आय कर, कहा कहेंगे जाय । लाभ लेन तो दूर है, चाले मूल गेंवाय ॥ १७॥ कबीर कहा गरवियौ, ऊँचे देखि अवास । कल मरघट में लेटना, ऊपर जमि है घास ॥ १८॥ कवीर यह तन जात है, सके तो लेहु बहोरि। नंगे हाथों वे गये, जिनके लाख करोर ( १६ ॥ काची काया मन अथिर, थिर थिर काम करन्त। ज्यों ज्यों वर निधड़क किर , त्यों त्यों काल हसन्‍्त ॥। २० ॥ कौड़ी-कौड़ी जोरि कं, जोरे लाख करोर । चलती बार न कछु मिल्पो, लई लड्भीटी तोर ॥ २१ ॥ कतीर कहा मरवियो, काल गहै कर केस । ता जाने कब मारिहै, के घर की परदेस 11 २२॥| कबहु तप्यो पर ताप ते, हरी कबहु परपीर । आसा हीन अधीर कहेँ, कबहुँ वँधायों धीर ॥ २३॥ कहूं अनाथ असहाय की, कीन्दीं कुक सहाय । पार कियो कहूँ काहु को, अपनो हाथ गहाय ॥ 5६४ ॥ काबा कासो त्यागि अब, देखहु दीनन गेह । दरिद नरायन ही जहाँ, दर्शन देत संदेह २५॥ को बरसे घत समय तिर, कं भरि जनेम निरास। तुलसी यावक चातकहिं, एक तिहारी आस ॥ २६ ॥ काज विगारत आपनो, सुजज और के काज | बलिहि निवारत नैन की, हानि सही भगराज ॥ २५। | कविरा सोई पीर है, जो जाने पर पीर | जो पर पीर म॑ जानई, सो काफिर थे पीर ॥ रूप ||




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