समाजशास्त्र का भारतीयकरण | Samajshastra Ka Bharatiyakaran

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Samajshastra Ka Bharatiyakaran by अशोक कुमार कौल -Ashok Kumar Kaul

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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समाजच्षास्त्र के सदर्भ तथा इसका भारतायकरण न निरपेक्षा, सदर्भ-सस्कृति, विषयो का चयन आदि के रूप मे स्थापित हुए और परिणामस्वरूप आधुनिक विषयो के श्रेणीक्रम मे समाजशास्त्र को प्रकृति-विज्ञान के ऊपर रखा गया। स्पष्ट रूप से, प्रारम्भिक दौर मे समाजशास्त्र एक यूरोपीय या पाश्चात्य विषयोत्पाद के रूप मे विष्व के समक्ष उभरा था जिसकी जडे फ्रास और जर्मनी मे तो काफी गहरी और मजबूत थी लेकिन इग्लैण्ड मे इसका स्वरूप वैसा ही रहा जैसा कि भारत मे था। सोवियत सघ के पतन के पश्चात्‌ जब सम्पूर्ण विश्व मे “सूचना-तकनीकी” और “इलेक्ट्रॉनिक-क्रान्ति” ने न सिर्फ दुनिया के विभिन्न भागो को परस्पर निकट ला दिया बल्कि इसके विभिन्न हिस्सो मे नई सोच और नए-विचारों के बीजारोपण भी कर दिए और पुराने परम्परागत यूरोपीय सिद्धान्तो और उनके पैमानो को विस्थापित कर दिया। इसके दूरगामी परिणाम अब हमे संस्थानो के सिमटते अस्तित्व के रूप मे देखने को मिल रहे हैं। प्राथमिक समूह, सामाजिक-स्तरीकरण, सामाजिक नियन्त्रण, समाजीकरण के नए अभिकरण और इनके माध्यम से निर्मित हो रहे समाज की एक नई तस्वीर उभर रही है जिसमे इतिहास द्वारा अब तक उपेक्षित या प्राय विस्मृत कर दिए गए लोगो और वास्तविकताओ की परछाइयो के कलेवर भी शामिल है। इस सपूर्ण प्रक्रिया मे वो प्रश्न एक बार फिर महत्वपूर्ण रूप से प्रस्तुत हो रहे है जिनके बारे म यह माना गया था कि आधुनिकीकरण की प्रक्रिया उनको समाप्त कर देगी, लेकिन ऐसा हो नही पाया। आज “स्व” और “अन्य” (“8९1१” 894 “055७7”) का वर्गीकरण और विश्लेषण नए प्रारूप मे नई शैली मे हो रहा है। ए० गिडटेन्स के अनुसार “नया युग अनिश्चितताओ का युग है ओर इसमे इतिहास ने अपनी दिशा खोई है।” इस परिप्रेक्ष्य मे भारतीय परिवेश मे समाजशास्त्र मे संस्कृति के दायरे मे सस्कृति की पारम्परिक शक्तियों और आधुनिक पूँजीवाद की पारस्परिक-टकराहट के परिणामस्वरूप नए न्ड-बिन्दु' निर्मित हो रहे हैं। भारतीय विचारको के अनुसार एक नया समाज बनाने का प्रारूप बनाने की आवश्यकता हैं, जिसमे अपनी सस्कृति और इतिहास के उन तत्वो को उभारने और विश्लेषित करने के मुद्दे शामिल होने चाहिए, जिनकी अब तक प्राय उपेक्षा होती रही है। हालाँकि प्रारम्भिक भारतीय समाजशास्त्री




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