सुख यहाँ भाग 1, 2 | Sukh Yahan bhag - 1, 2

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Sukh Yahan  bhag - 1, 2 by पवन कुमार जैन - Pavan Kumar Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दोहा १-१ € बैभवको ही सब कुछ समझता है. जबकि ज्ञोनके समक्ष सब कुछ व्यर्थ है । देखो सर्वत्र महिमा ज्ञानकी ही है । सब लोग ज्ञानकों ही जानते है श्रौर ज्ञानकों ही बताना चाहते है । ज्ञानदानकी बहुत बडी महिमा है । किसी भी प्रकार दूसरोको ज्ञानक दान देना चाहिये चाहे पुस्तकें वितरण कर श्रथवा रुपया पैसा देकर पढाई कराकर था स्वयं पड़ाकर श्रादि । सोचो जब हम दूसरोका कुछ नहीं कर सकते तब भगवानुके लिए क्या कर सकते है ? जिस प्रकार बम्बई घूमकर श्राये हुये. प्राखीको बम्बईका सम्पूर्ण हृश्य श्रपनी ऑाँखोके समक्ष ही दृष्टिगोचर होता है उसी प्रकार जिसने अपनेको पहिचान लिया उसे श्रपनेमे ही प्रभु नजर थ्राति हैं । विपरीत श्रवस्थामे दूर नजर श्राते है । जिस प्रकार शीशे दपंण मे हाथी जैसा विशाल प्राणी भी दिखाई देता है उसी प्रकार ज्ञानमे सब कुछ प्रत्यक्ष कलकता है । यदि थे प्राणी किसीसे राग करता है तो भी श्रपने लिए ही द्रेष करता है तो भी अ्रपने लिये ही । तात्पयं यह जो कुछ करता है सब कुछ ध्रपने लिए ही करता है दूसरोका कुछ नहीं । मैं नमस्कार करता हू इसमे चाहे किसीको भी नमस्कार श्ररनेका उद्देश्य बनाया है. किन्तु है सब कुछ श्रपने लिए हो । भगवान्‌ को नमस्कार वया दर्शकोकों दिखानेके लिए करते है ? मन्दिरसे जाकर नमस्कार करना दिखावा करना हो सकता है परन्तु भ्रपनेमे ही श्रपने द्वारा श्रपनेकों श्रपने लिए म्रपने आप अपने उद्धार के लिए नमस्कार किया जाता है । नमस्कारका तात्पयं है मैं श्रपनेमे श्रपने लिए अपने श्राप समाकर सुखी होऊ | ज्ञानशक्ति दर्शनशक्ति चरित्रशक्तिकी तरह ही श्रानन्दशक्ति है । जो जो भ्रसुझुति बनती है वे सब भ्रपनेसे ही बनती है । जब यह प्राणी श्रात्मानन्दका स्वाद एक बार श्रास्वा+ दन कर लेता है उसे ग्रव्य सब कुछ व्यथें लगता है । विलक्षण है ये श्रात्मानन्दकी श्रतुभूति उस स्थितिसे प्राणी सोचता है कि मेरी यह श्रात्माके झानन्दकी श्रचुभूति निरन्तर बनी रहे भ्रन्य कुछ नहीं । परमाथेसे अध्याठमतत््वको ही नमस्कार किया जाता है । समवशरणमे भी भगवान्‌की सूति ही नजर श्राती है । मन्दिरोमे जो सूरति है वह स्थापित मूंति है । भाँखोसे देखने पर मुद्रा ही नजर आती है । ज्ञानमय ही भगवान्‌ है । सो श्रपनेसे मैं अपने को नम स्कार करता हू श्रौर पर परात्पर श्रात्माकी भी नमस्कार करता हू । श्रपनी प्राधि होना ही प्रपता नमस्कार है । झ्पने झात्मतत्वकी प्राप्ति होनेपर रागका स्वय श्रभाव होने लगता है। जिसने झपने आपको प्राप्त किया है ऐसा वह परमात्मा भी मेरे स्वभावके श्रनुरूप है । झत मैं प्रपतेमे श्रपने श्रापको व परमात्माको नमस्कार करके अ्रपने लिये श्रपने श्रापमे स्वय सुखी होऊ ।




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