सिद्धिविनिश्चय टीका | Sidddhivinishchayatika

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Sidddhivinishchayatika  by महेंद्र कुमार न्यायचार्य - Mahendra Kumar Nyayacharya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्राथमिक अ्रकलंकके नामसे जैन समाजका प्रत्येक व्यक्ति सुपरिचित है। किन्तु इस परिचयका आधार है प्रायः श्रकलंकके जीवनका बह कथानकं जिसके श्रनुसार उन्दोनि नौद्ध शालकि गूढ अध्ययनके लिए किसी बौद महाविद्यालयमें, वहाँ के नियमोंके विरुद्ध, वेष बदलकर प्रवेश किया, तथा सच्ची बात खुल जाने पर নহাঁবী মাথা कर बड़े क्लेशसे अपने प्रा्योंकी रक्षा की | तसश्चात्‌ उन्होंने राज-समामें बौद्धोंसे शाज्ञार्थ कर उन्हें परास्त किया और देश भरमें जैनधमंका डंका बजाया । कथानक अधिकांश काल्यनिक हुआ करते हैं, और उनमें श्रनेक बातें अदा-चढ़ाकर वंन को भाती है। किन्तु उनमें हमें बहुधा, विवेकसे बिचार करने पर, तथ्यांशके दर्शन মী হী জান हैं। अकलंकके विषयमे जो बातें उनकी रचनाओंके अध्ययन व श्रन्य ऐतिहासिक खोज-शोधसे जात हो सकी हैं उनसे उक्त कथानककी यह बात पूर्णतः प्रमाणित हो जातो है कि अकलंकने जैन धर्मके अतिरिक्त वैदिक व बौद्ध शास्रोंका गहन अध्ययन किया था, और अपने प्रन्थोंमें उनकी तीत्र आलोचना करके जैन धर्मझे महत्वकों बहुत बढ़ाया था । अकलंकका सबसे अधिक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ है 'तत्त्वार्थ-राजवात्तिक' | यह उमास्वातिके त्वार्थसूत्रकी विशद और सुविस्तृत टीका है, जिसमें उनसे पूर्वकी पूञ्यपादङृत सर्वार्थसिद्धि नामकं तरवाथैडृत्तिका बहूु- भाग वासिक रूपे ग्रहण कर बिषयको विस्तारसे समभानेका प्रयत्न किया गया है। उस कृतिका पंडित- समाजमें बहुत कालसे प्रचार है, और इसे पढ़कर ही वे जैन सिद्धान्तशास्त्रीका पद प्रास-करते चले आ रहे हैं। उनकी दूसरी प्रसिद्ध रचना है “अप्टशती' | यह समंतभद्र कृत आसमीमांसा' की टीका है जिसे आत्मसात्‌ करके विद्यानन्द स्वामीने श्रपनी 'श्रष्सइर्सी' नामकी टीका लिखी है। जैन न्यायके शानके लिए यह रचना भी दीघकालसे सुविख्यात है। इनके अतिरिक्त अकलंककी चार रचनाएँ और अ्रभी श्रभी प्रकाशमें आई हैं। ये हैं 'लघीयस्रय', 'न्यायविनिश्चय', “प्रमाणसंग्रइ” और (सिद्धिविनिश्चयं' । ये चारों ही ग्रन्थ न्याय-विषयक हैं, जिनमें जैन न्यायके सिद्धान्तोंको सुप्रतिष्ठित श्रौर पल्लवित करते हुए, उनके द्वारा जैन आगमिक परम्पराका पोषण किया गया है, ओर यथावसर वैदिक व बौद्ध सिद्धान्तोंकी आलोचना को गई है। इन ग्रन्थोंका अभी उतना प्रचार नहीं हो पाया जितना प्रथम दो रचनाओंका हुआ है) ये इतिय, है भी श्रपेज्ञाकत अधिक दुर्नोध और पारिडित्यपू्ण । इसी कारण इन ग्रन्थोंकी प्राचीन प्रतियाँ भी दुलंभ द्वो गई थीं | यह तो इस कालकी गवेषणाबूत्ति तथा तह्संबंधी विद्वानोंके विशेष प्रयासोंका सुपरिणाम हैं जो ये গন্য प्रकाशमें छाये जा सके हैं। जत्र हम न्यायविषयक ग्रन्थोंका श्रवक्ोकन करते हैं तत्र हमें अपने इन श्रतिप्राचीन विद्वानोकी प्रतिभा, ज्ञानोपासना तथा साहित्यिक श्रध्यवसायपर श्राश्वय और गयब हुए जिना नहीं रहता । किन्तु प्क बात आारम्बार हृदयमें उठती है कि वैदिक परम्पराके नैयायिकोंने बौद्ध व जैन मतमतान्तरोंका खंडन किया व बौद्ध तथा जैन नैयायिरोंने अपने-अपने दोनों विरोधी घर्मोका । न्‍्यायकी जो शैडियाँ इन अंथोंमें अपनायी गई हैं उनका प्रयोजन सुखयतः अपनी-अपनी श्रागमिक परम्पराओ्नोंका पोषण करना ही रहा है, जब कि न्यायका उद्देश्य होना चाहिए यथार्थताका निणय | जैनधर्मने न्यायशासत्र ही नहीं किन्तु समस्त शानात्मक चिंतनके लिए कुछ ऐसे सिद्धान्त स्थापित किये हैं जिनका प्रयोजन वस्तुके स्वरूप पर विशाल दृष्टिसे विचार करना तथा संकुचित दृष्टिका निषेध करना है । इसी ध्येयसे सत्ताकी परिभाषा उत्पाद-व्ययऔव्यात्मक रूपसे की




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