त्रिशंकु | Trishanku

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Trishanku by नरसिंह श्रीवास्तव - Narsingh Srivastav

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रवर्ग-सरी मे रूपलिया जब करती होगी कोलि-स्जान वाहुबक्ष पर जलकण लगते होगे मोती की मुरकान । मंदिर मेघमाला खी ट्रे उन से क्रीडा-रत होकर, ढल जाती होगी अतृप्त सी उनके भ्रगो को धोकर। केसी होगी देहयाप्टि जिनमे सरगम होते मुखरित, केसी है गति लारय-नृत्य की जुद्ाएं करती चविरचिंत? जिजकी आखो का ओन खोलता मावे कै अर्थ गहन, केसे होगे उन रूपिय के रस बरसाते अश्र-गयले° शात मानसर जल पर तिरते हसी सी जिनकी आसे, जिह्वा रहती ह मोन बात करती है जिनकी एय £ जिन ওত में प्रणय-पुराण के पाठ सदा लिखे रहते, वे ही विषधर सर्प-नयन मुझे निरन्तर इसते रहते । नील कमल या मृगचितवन अथवा जेसे किसलय कोमल, बरवस मन प्राण खींच लेते उनके रवष्न-नयन चचल । दमक रही ज्यों घने वादलो मे महद्धिम विघुत-रेखा, शात सुमुख यर सदाः खिची रहती होगी रिमत-रेखा।




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