पाश्चात्य लाहिल्यालोचन | Pashchatya Shahitya Lochan

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Pashchatya Shahitya Lochan by लीलाधर गुप्त - Leeladhar Gupt

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भन ~ “~ ~ पहला प्रकरणं দি ९.1 वहिष्कृत आलोचनाएँ गद विपर्यो का प्रतिपादन कभी-कभी निपेधात्मक रीति से किया जाता दै । मक्ष का ज्ञान कराने के लिये यह बतलाया जाता है फि यह वस्तु श्रह्मां नहीं है, वह वस्तु अह्म नहीं है। यद्यपि साहित्यालोचन का विपय इतना गृढ़ नहीं है जितना कि ब्रद्म अथवा आत्मा का, तो भी जब फोई खोज करने वाला साहित्या- लोचन কি গত का निर्णय फरता है तो रुकावट फा अनुभव करता दै । कारणं चद्‌ कि नतो साधित्य के अर्थ का द्वी कोई स्थैर्य है और न आलोचना के अथ का दी । | . साहित्य कभी-कभी तो विपव-प्रधान माना गया दे और कमी कभी शैती- भधान । कभी-कभी यद्‌ साना गया है कि किसी भाषा में जितने भी अन्य है वे सब ठस भाषा के साहित्य हैं और कभी-कभी यह माना गया है. कि किसी भाषा फे केवल वे अन्य ही साहित्य हैँ जो भावलयझ्लना और रूम-सौप्ठव के कारण हृदयस्पर्शी दोते द । न्यूमैन सममा ६ कि सादित्य मुष्य के विचार्यो, रसकी भावनाओं, और कल्पनाओं का व्यक्तीकरण है, तो श्लेजल का मत है कि साहित्य किसी जाति के मानसिक जीवन का सर्वान्नी सार है। एमसेन का कथन है कि साहित्य बद्द श्रयास है जिसके द्वारा मनुष्य अपनी दुर्दशाकृत क्षति की पूर्ति करवा है तो यूद्र का कथन है कि साहित्य अचेतन मन से आई हुई प्रतिमाओं का चेतन आदर्शो' के लिये अयोग करना है। भारतीय विचार के अजुसार साहित्य वह वस्तु दै जिसमें एक से अधिक वस्तु मिली हुई हों। साहित्य शब्द 'सहित' में प्यव्य! प्रत्यय के जोड़ने से बना है। आचाय भामद अपने 'काव्यालंकार! मैं कहते हैं, 'शब्दायो सद्दिती काव्यम! अर्थात्‌ शब्द और अर्थ का सहभाव॑ काव्य अथवा साहित्य दै। परन्तु इस परिभाषा में और सब प्रकार के लेख भी आते हैँ। इसी से राजशेखर ने अपनी “काव्यमीमांसा? में इस सहमभाव को तुल्यकक्त कह कर काव्य को दूसरे भ्रकार के लेखों से अलग किया है--“शब्दाथयोरयथा- वल्सहभावेन विद्या साहित्यविद्या।” इसी: परिभाषा से प्रभावित होकर कुछ आलोचक शब्द की रमणीयता पर ज़ोर देते हैं और छुंछ आलोचक अर्थ की स्मणीयता' पर | शस्सगंगाधर म रमणीय श्रथ के प्रतिपादक शब्द को काव्य कदय दै } बहुत से आलोचक अंर्थ कीं रमसीयता मे शब्द्‌ की रमणीयतां भी समम




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