जिन्दगी करवटें और सवेरा | Jindgi Karwate Aur Sawera

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Jindgi Karwate Aur Sawera by महेशचन्द्र शर्मा - Maheshchandra sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१५ दुःखः:सुख के इन भावस्वप्नों में उतराता फिर वह ज्योति के बारे में सोचता । बहुत छोटा जब वह था तब उसकी माँ उसके पिता से कहा करती, ज्योति को तो तुमने पैदा होने से पहले ही अजीत के लिये माँग लिया है.. .भ्रब इसे बड़ा करो जल्दीसे ।' उसे पता था कि पैदा होने से पहले ही उन दोनों के वचन हो चुके थे भौर उसे यह भी पता था कि श्रव इसे बातत की कल्पना भी संभव नहीं है। उसने कई बार ज्योत्ति को बढ़े होमै के बाद देखा है, भ्ौर ज्योति ने भी, किन्तु ज्योति में एक बड़प्पन की भावना है, नारीत्व का उसमें श्रभी विकास नहीं हृश्रा | वहु गांव में अपने घर को सबसे बड़ा और अ्पती प्रतिष्ठा को सब्रसे ऊँचा सम'कतो है। उसे इस बात का ज्ञान नहीं है कि वह जन्म से धूर्त्र ही किसी को दे दी गई है, यदि पता होता तब भी शायद वह इस प्रगति के युग में ऐसी मू्खता न करती । ग्रजीत जब विचारों के संधर्प से क्लान्त हां अमृतसर स्टेशन पर उतरा तो उसके छोटे से होल्डाल भ्ौर सूटकेस को उठाने के लिये कुलियों में छीना-फपटी होने लगी--काफी देर तक उनका बीच-बचाव करने में अपने को ग्रसमर्थ पा स्वयं ही अपना सामान वह वेटिंग हाल में उठा लाया । वहाँ से एक लड़के के माथे पर होल्डाल रख जब वह 'तांगों के श्रहु पर पहैचा तब दिन के बारह बज रहे थे । हजार-हजार दुःखो का असह बोक लिये वह तांगे पर अपनी 'बालस्मृतियों के गाँव माहेवाल को रवाना हुआ तो उसका मस्तिष्क चंचल था---एक साथ ही हजारों कर्तव्य सामने भरा जाने पर जो स्थिति मनुष्य की होती है, वही स्थिति भ्रजीत की थी ।




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